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षड्दर्शनसमुच्चये
[का०४९. ६२०३वैशेषिकाभिमतेचतुस्त्रिद्वयणुकस्पर्शादिगुणवतां पार्थिवाप्यतैजसवायवीयपरमाणूनां जातिभेदाच्चतू. रूपाः। यथा लेवहिंगुनी स्पर्शनचक्षुरसनघ्राणयोग्येऽपि जले विलीने सती लोचनस्पर्शनाभ्यां ग्रहीतुं न शक्ये परिणामविशेषवत्त्वात्, एवं पार्थिवादिपरमाणवोऽप्येकजातीया एव परिणतिविशेष. वत्त्वात न सर्वेन्द्रियग्राह्या भवन्ति, न पुनस्तज्जातिभेदादिति ।
६२०३. शब्दादीनां तु पौद्गलिकतैवं जेया-शब्दः पुद्गलद्रव्यपरिणामः, तत्परिणामता चास्य मूर्तत्वात्, मूर्तता चोरःकण्ठशिरोजिह्वामूलदन्तादिद्रव्यान्तरविक्रियापादनसामर्थ्यात्, पिप्पल्यादिवत् । तथा ताड्यमानपटहभेरीझलरितलस्थकिलिञ्चादिप्रकम्पनात् । तथा शङ्कादिशब्दा. नामतिमात्रप्रवृद्धानां श्रवणबधिरीकरणसामर्थ्यम् तच्चाकाशादावमूर्ते नास्ति। अतो न तद्गुणः शब्दः । तथा प्रतीपयायित्वात्, पर्वतप्रतिहतप्रस्तरवत् । तथा शब्दो नाम्बरगुणः, द्वारानुविधाक्योंकि इन पृथिवी आदिमें परस्पर उपादान-उपादेय भाव देखा जाता है-पृथिवीका जल बन जाता है, जलका मोती तथा बांस आग बन जाते हैं। आप जाति भेदकी कल्पना इसीलिए करते हैं कि-सभी पथिवी आदि द्रव्य सभी इन्द्रियोंके द्वारा गहीत नहीं होते, सो इसका कारण तो पद्गल द्रव्यके परिणमनकी विचित्रता है। देखो, जो नमक और हींग अपनी स्थल पाथिव अवस्थामें कानके सिवाय सभी इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण किये जाते थे वे ही जब पानी में घुल-मिलकर पानी बन जाते हैं तब आँखसे तथा स्पर्शन इन्द्रियसे ग्रहण नहीं किये जा सकते। इसी तरह पृथिवीजल आदि द्रव्योंके सभी परमाणु साधारण रूपसे एक पुद्गलजातिके होकर भी अपने विचित्र परिणमनके कारण सभी संब इन्द्रियोंके ग्राह्य नहीं होते। जिसमें जो गुण उद्भूत होगा वह उसी गुणको ग्रहण करनेवाली इन्द्रियसे गृहीत होगा। इसके लिए परमाणुओंमें जातिभेद मानना निरर्थक है। पुद्गलोंके परिणमनकी विचित्रतासे ही अमुक-अमुक परमाणुओंको अमुक-अमुक इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण होनेका निर्वाह हो जाता है।
६२०३. शब्द आदि पोद्गलिक हैं। शब्द मूर्त होनेके कारण पौद्गलिक हैं। शब्दको पैदा करते समय हृदय, गला, सिर, जीभका आखिरी मूल भाग, दांत आदिमें जोर लगाना पड़ता है। इनमें विकार आनेसे क्रिया होनेसे ही शब्दकी उत्पत्ति होती है। जिस प्रकार पीपल आदिके खानेसे गला आदि कुछ विकृत हो जाते हैं उसी तरह शब्दका उच्चारण करते समय भी गले आदिमें विकार आता ही है। अतः मूर्त पदार्थों में विकार पैदा करनेकी सामर्थ्य रखने के कारण शब्द भी पीपल आदिको तरह मूत है । जब भेरो, नगाड़ा, झालर, तबला आदि बजाते हैं तो इनमें कम्प पैदा होता है। यदि शब्द अमूर्त होता तो उससे मूर्त झालर आदिमें कम्प कभी नहीं हो सकता था। शंख आदिको जोरसे फूंकनेपर उत्पन्न होनेवाला तीव्र शब्द कानके परदे फाड़ देता है. मनुष्यको बहरा बना देता है। ये सब मर्त पदार्थों में विक्रिया करनी. उन्हें कपाना तथा सुननेवालेको बहरा देनेकी शक्तियां अमूर्त आकाशमें तो सम्भव ही नहीं है अतः शब्द आकाश
१. "कथं तहि इमे गुणा विनियोक्तव्या इति । एकैकश्येन उत्तरोत्तरगुणसद्भावादुत्तराणां तदनुपलब्धिः ।" न्यायसू. ३।।१४ । २. -निम्बस्पर्शन-भ. २। ३. “पृथिव्यप्तेजोवायुमनांसि; पुद्गलद्रव्येऽन्तर्भवन्ति. रूपरसगन्धस्पर्शवत्वात् ।...न च केचित्पार्थिवादिजातिविशेषयुक्ताः परमाणवः सन्ति जातिसंकरेणारम्भदर्शनात् ।" -सर्वार्थसि. ४।३। ४. "कर्णशषकुल्यां कटकटायमानस्य प्रायशः प्रतिघातहेतोभवनाधुपघातिन: शब्दस्य प्रसिद्धिः अस्पर्शत्वकल्पनामस्तंगमयति....." अष्टश. अष्टसह. पृ. १०८। "द्रव्यं शब्दः, स्पर्शाल्पत्वमहत्त्वपरिणामसंख्यासंयोगगुणाश्रयत्वात्, यद्यदेवंविधं तत्तद्रव्यम् यथा बदरामलकविल्वादि, तथा चायं शब्दः तस्मादद्रव्यम।" -प्रमेयक. पू. ५५०। ५.-पव्यापित्वात् म.। ६. "गुणवान् शब्दः स्पर्श-अल्पत्व-महत्त्वपरिमाण-संख्या-संयोगाश्रयत्वात्, यद् एवंविधं तद् गुणवत् यथा बदर-आमलकादि, तया च शब्दः, तस्मात्तथा इति ।"-न्यायकुमु. पृ. २४३ ।
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