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________________ -का० ४९.६२०२] जेनमतम् । २६५ वर्तत इदं न वर्तत इति कालापेक्षमेवोप्ता यत् । सर्वे ब्रुवन्ति तस्मान्ननु सर्वेषां मतः कालः ॥२॥ ह्यः श्वोऽद्य संप्रति परुत्परारि नक्तं दिवेषमः प्रातः । सायमिति कालवचनानि कथं युक्तान्यसति काले ॥ ३ ॥" $२०१. परिणामोऽपि सजातीयानां वृक्षादिवस्तूनामेकस्मिन्काले ऋतुविभागकृतो वेलानियमकृतश्च विचित्रः कारणं नियामकमन्तरेणानुपपन्नः ततः समस्ति तत्कारणं काल इत्यवसीयते। तथा विनष्टो विनश्यति विनञ्जयति च घट इत्यादिक्रियाव्यपदेशा अतीतवर्तमानानागतकालत्रयविभागनिमित्ताः परस्परासंकीर्णाः संव्यवहारानुगुणाः कालमन्तरेण न भवेयुः, ततोऽस्ति कालः। तथेदं परमिदमपरमिति यन्निमित्ते प्रत्ययाभिधाने, स समस्ति काल इति ।। १२०२. पुद्गलाः प्रत्यक्षानुमानागमावसेयाः, तत्र कटघटपटलकुटशकटाक्योऽध्यक्षसिद्धाः। अनुमानगम्या इत्थम्-स्थूलवस्त्वन्यथानुपपत्या सूक्ष्मपरमाणुघणुकादीनां सत्तावसीयते, आगमगम्यता चैवं "पुद्गलस्थिकाए" इत्यादि । तथा परमाणवः सर्वेऽप्येकरूपा एव विद्यन्ते, न पुनयह हो रहा है, यह नहीं हो रहा है, इत्यादि कालकी अपेक्षा ही व्यवहार करते हुए देखे जाते हैं। इसलिए यह मानना ही होगा कि सब लोग कालके अस्तित्वको स्वीकार करते हैं। यदि कालद्रव्य न हो तो–'बीता हुआ दिन, आज, आगे आनेवाला दिन, इसी समय, पीछे, बहुत जल्दी, रात, दिन, अभी, सबेरे, शाम' इत्यादि काल सम्बन्धी व्यवहार कैसे बनेंगे। ये व्यवहार काल द्रव्यके माने बिना सिद्ध नहीं हो सकते ॥ १-३ ॥ ६२०१. एक हो जातिके वृक्ष आदि पदार्थों में एक ही समय ऋतुविभाग तथा प्रातः, दुपहरी और सायंकाल आदि समय विभागसे विचित्र-विचित्र परिणमन-हालतें देखी जाती हैं। ये परिणमन बिना किसी निमित्तकारणके तो हो ही नहीं सकते। अतः इनसे परिणमनमें साधारण निमित्त होनेवाले कालका अनुमान किया जाता है। इसी तरह घड़ा फूट गया, फूट रहा है या फूटेगा ये भिन्न कालवर्ती क्रियात्मक व्यवहार अतीत, वर्तमान और अनागत कालके बिना नियत रूपमें नहीं हो सकते। तीनों कालके माने बिना तो संसारके व्यवहार ही रुक जायेंगे। अतः काल द्रव्यं मानना ही चाहिए । 'यह बड़ा है, जेठा है; यह छोटा है, लहुरा है' ये ज्ञान तथा ऐसे शब्दोंका प्रयोग भी कालके निमित्तसे ही होते हैं। २०२. पुद्गल द्रव्य तो प्रत्यक्ष अनुमान तथा आगम प्रमाणसे प्रसिद्ध हैं। चटाई, घड़ा, कपड़ा, डण्डा, गाड़ी आदि पौद्गलिक पदार्थ प्रत्यक्षसे ही दिखाई देते हैं। घट, पट आदि स्थूल पदार्थों को देखकर द्वयणुक तथा सूक्ष्म परमाणुओंका अनुमान किया जाता है। आगममें भी पुद्गलास्तिकायकी चर्चा आती ही है। पुद्गलद्रव्यके परमाणु सभी एक पुद्गल जातिके ही हैं उनमें पार्थिव, जलीय आदि रूपसे भीतरी जाति भेद नहीं है। वैशेषिक परमाणुओंकी चार जातियां मानते हैं। उनमें पार्थिव जातिके परमाणुओंमें रूप-रस-गन्ध और स्पर्श ये चारों ही गुण पाये जाते हैं, जलीय परमाणुओंमें गन्धके अतिरिक्त शेष तीन गुण पाये जाते हैं। अग्निके परमाणुओंमें रूप और स्पर्श ये दो ही गुण होते हैं तथा वायुके परमाणुओंमें केवल एक स्पर्श गुण ही पाया जाता है। वैशेषिकोंकी यह परमाणुओंमें जातिभेदको कल्पना बिलकुल असंगत तथा प्रमाणशून्य है। १.-मेव सर्वे यत् आप्ता ब्रवन्ति भ.। २. परत्परारि भ.३। ३. समस्ति स काल म.२॥ ४. घटपटकटलकुट-म. ।। ५. "चत्तारि अस्थिकाया अजीवकाया पण्णत्ता, तं जहा-धम्मत्यिकाए, अधम्मत्यिकाए, आगासत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए।"-स्थानांग स्थान ४ उद्दे. १ सू. २५१ । व्या. प्र. श. ७ उद्दे. १. सू. ३०५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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