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________________ षड्दर्शनसमुच्चये धारणकारणत्वात् एवमवगाहोऽप्यम्बरस्य प्रतिपत्तव्यः । $ १९९. वैशेषिकास्तु शब्दलिङ्गमाकाशं संगिरन्ते, गुणगुणिभावेन व्यवस्थानादिति तदयुक्तम्; रूपादिमत्त्वाच्छब्दस्य, रूपादिमत्ता च प्रतिघाताभिभवाभ्यां विनिश्चेया । २६४ $ २००. कालस्तु वर्तनादिभिलिङ्गैरनुमीयते । यतो वर्तना प्रतिद्रव्यपर्यायमन्तर्णीतेक समयस्वसत्तानुभूतिलक्षणा, सा च सकलवस्त्वाश्रया कालमन्तरेण प्रतिसमयमनुपपन्ना अतोऽस्ति कार्यानुमेयः कालः पदार्थं परिणतिहेतुः लोकप्रसिद्धाश्च कालद्रव्याभिधायिनः शब्दाः सन्ति न तु सूर्यक्रियामात्राभिधायिनः । यथाह "युगपदयुगपत्क्षिप्रं चिरं चिरेण परमपरमिदमिति च । वर्त्स्यति नैतद्वति वृत्तं तत्तन्न वृत्तमपि ॥१॥ साथ भूमि, जल, हवा आदि अनेकों कारण होते हैं, पर उन सबसे उत्पन्न होनेवाला यवांकुर ही कहा जाता है भूमि या जलका अंकुर नहीं । उसी तरह अवगाह में आकाश के साथ भले ही पुद्गल आदि कारण रहे, पर प्रधान या असाधारण कारण तो आकाश ही है अतः अवगाह असाधारण कारण रूप आकाशका ही धर्म हो सकता है साधारण कारण पुद्गलादिका नहीं । $ १९९. वैशेषिक लोग शब्दको आकाशका गुण मानकर शब्दसे आकाशका अनुमान करते हैं । वे शब्दको गुण तथा आकाशको गुणी कहकर इनमें गुणगुणी भाव स्थापित करते हैं । उनकी यह मान्यता युक्ति तथा अनुभव दोनोंसे विरुद्ध है । पौद्गलिक शब्द में तो रूप-रस आदि पाये जाते हैं जब कि आकाशमें इनकी गन्ध भी नहीं है वह तो निखालिस अमूर्त है । जब आकाश में और शब्दमें इतना बड़ा विरोध - भेद है तब इनमें गुणगुणिभाव कैसे बन सकता है ? शब्दका मूर्त होना या पौद्गलिक होना प्रतिघात तथा अभिभवसे सिद्ध होता है। देखो, शब्द दीवालसे टकरा जाता है, बिजली आदि की तीव्र तड़तड़ाहट कानके परदेको फाड़ देती है, शब्दकी प्रतिध्वनि होती है, बाजोंके जोरदार शब्द मन्द शब्दोंका अभिभव - तिरस्कार कर देते हैं, उन्हें ढँक देते हैं । यदि शब्द अमूर्त होता तो उसमें प्रतिघात - टकराना तथा अभिभव - मन्द शब्दोंका अभिभव - नहीं हो सकता था । आकाश या धर्मादि अमूर्त वस्तुएं न तो किसीसे टकराती हैं और न किसीका अभिभव हो करती हैं । ये प्रतिघात और अभिभव ही शब्दको मूर्त तथा पौद्गलिक सिद्ध कर देते हैं । [ ४९.६ १९९ $ २००. काल द्रव्यका अनुमान वर्तना परिणाम आदि लिंगोंसे किया जाता है । प्रत्येक द्रव्य और पर्याय प्रतिक्षण जो अपनी एक समयवाली सत्ता अनुभव करता है वह सभी वस्तुओं की एक क्षणवाली सत्ता ही वर्तना कहलाती है । यदि कालद्रव्य न हो तो यह समस्त पदार्थोंकी एक समयवाली सत्ता नहीं बन सकती । अतः इसी एक समयवाली पदार्थोंकी सत्ता रूप वर्तनासे पदार्थों के परिणमनमें निमित्त होनेवाले कालका अनुमान किया जाता है । सूर्यकी क्रियाको ही काल नहीं कह सकते; क्योंकि संसार में कालके वाचक ही 'जल्दी, देरी, एक साथ, क्रमसे' इत्यादि शब्दों का प्रयोग या व्यवहार होता है, सूर्यको गतिका वाचक शब्द तो कालके अर्थ में कहीं भी प्रयुक्त नहीं होता । अतः लोक व्यवहारके अनुसार कालको स्वतन्त्र द्रव्य मानना चाहिए। कहा भी है - "सभी आप्त - प्रामाणिक पुरुष 'युगपत्, अयुगपत् - क्रमसे, क्षिप्र - शीघ्र, चिर-देर, चिरेण - - बहुत देर, पर- बड़ा पुराना, अपर-नया छोटा, यह होगा, यह नहीं होगा, यह हुआ था, यह नहीं हुआ, १. ' शब्दोऽम्बरगुणः श्रोत्रग्राह्यः ।" प्रश. भा., ब्यो. पृ. ३. प्रतिद्रव्यपर्याय मन्तनर्तकसमया स्वसत्तानुभूतिर्वर्तना ।" Jain Education International ६४५ । २. येति कालस्तु भ. २ । त. वा. ५२२ । ४. वृत्तं तन्न आ. | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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