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-का. ४९. ६ १९८] जैनमतम् ।
२६३ $ १९७. अवगाहिनां धर्मादीनामवकाशदायित्वेनोपकारेणाकाशमनुमीयते। अवकाशदायित्वं चोपकारोऽवगाहः स चात्मभूतोऽस्य लक्षणमुच्यते । मकरादिगत्युपकारकारिजलादिदृष्टान्ता अत्राप्यनवर्तनीयाः।
१९८. नन्वयमवगाहापुद्गलादिसंबन्धी च व्योमसंबन्धी च ततः स उभयोधर्मः कथमाकाशस्यैव लक्षणम् । उभयजन्यत्वात्, द्वयङ्गलसंयोगवत् । न खलु द्रव्यद्वयजनितः संयोगो द्रव्येणैकेन व्यपदेष्टुं पार्यते लक्षणं चैकस्य भवितुमर्हतीति, सत्यमेततः सत्यपि संयोगजन्यत्वे लक्ष्यमाकाशं प्रधानम् ततोऽवगाहनमनप्रवेशो यत्र तदाकाशमवगाह्यमवगाहलक्षणं विवक्षितम् इतरत्त पुदगलादिकमवगाहकम्, यस्माद्वयोमैवासाधारणकारणतयावगाह्यत्वेनोपकरोति, अतो द्रव्यान्तरासंभविना स्वेनोपकारेणातीन्द्रियमपि व्योमानुमेयम् आत्मवत्, धर्मादिवद्वा । यथा पुरुषहस्तदण्डकसंयोगभेर्यादिकारणः शब्दो भेरीशब्दो व्यपदिश्यते, भूजलानिलयवादिकारणश्चाङ्करो यवाङ्करोऽभिधीयते, असाहोती अतः वह जलको अपेक्षा रखती है । गति और स्थितिमें उदासीन कारण है धर्म और अधर्मद्रव्य । इस समर्थ युक्तिसे धर्म-अधर्म द्रव्यकी सिद्धि होती है।
१९७. धर्म-अधर्म आदि सभी अवकाश चाहनेवाले द्रव्योंको अवकाश-स्थान देने रूप कार्यसे आकाशका अनुमान किया जाता है । अवकाश देना ही आकाशका अवगाह रूप उपकार है। यह आकाशका स्वाभाविक असाधारण लक्षण है। मगर आदिकी गति आदिमें जिस प्रकार जल आदि उदासीन अपेक्षा कारण हैं उसी तरह आकाश समस्त वस्तुओंको अवकाश देने में उदासीन निमित्त है । इस तरह ऊपर जो जल आदिके दृष्टान्त दिये हैं वे सब आकाशकी सिद्धि में भी लगा लेने चाहिए।
६१९८. शंका-अवकाश या अवगाह तो यदि देने की दृष्टिसे आकाशका धर्म है तो पानेकी दृष्टिसे पुद्गल आदिका भी है। 'आकाशमें पुद्गलादि रहते हैं तो यह 'रहना' आकाश और पुद्गल दोनोंका हो धर्म हो सकता है क्योंकि उसमें समान रूपसे दोनों ही कारण होते हैं। जैसे अंगुलियोंका आपसी संयोग दोनों अंगुलियोंका ही धर्म होता है किसी एक अंगुलीका नहीं। दो द्रव्योंसे उत्पन्न होनेवाला संयोग किसी एक द्रव्यका ही नहीं कहा जा सकता, वह तो दोनों द्रव्योंका ही संयोग कहा जायेगा। इसी तरह जब अवगाह भी आकाश और पुद्गलादि दोनोंका ही धर्म है तब उसे केवल आकाशका ही धर्म कैसे कह सकते हैं ?
समाधान-आपका कहना सत्य है। यद्यपि अवगाहमें आकाशकी तरह पुद्गलादि भी निमित्त होते हैं परन्तु आकाश अवकाश देनेवाला है अतः दाता आकाश प्रधान है तथा अवकाश मांगनेवाले या पानेवाले पुद्गलादि गौण हैं। आकाशमें अवगाह मिलता है, पुद्गलादि आकाशमें घुसकर रहते हैं अतः आकाश तो अवगाह्य-जिसमें अवगाह मिलता है-है। तथा पुद्गल आदि अवगाह प्राप्त करनेके कारण अवगाहक-अवकाश पानेवाले हैं। इसीलिए अवगाह गुण प्रधानभूत अवकाश देनेवाले आकाशका ही धर्म माना गया है, अप्रधान-पानेवाले पुद्गल आदिका नहीं। इस तरह आकाश ही अवगाह देने में असाधारण कारण होनेसे, अवगाह्य होने के कारण पुद्गलादिका उपकार करता है। दूसरे द्रव्यमें नहीं पाये जानेवाले अपने इसो असाधारण धर्मसे अतीन्द्रियइन्द्रियोंके द्वारा गहीत नहीं होनेवाले भी आकाशका अनुमान किया जाता है। आत्मा या धर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों की सिद्धि भी इसी तरह असाधारण धर्म या कार्योंसे की जाती है । देखो, भेरीनगाड़ा बजाने में भेरीके साथ ही साथ बजानेवाला आदमी, उसका हाथ, दण्डा, तथा डण्डेका भेरीसे संयोग आदि अनेकों कारण होते हैं परन्तु उससे उत्पन्न होनेवाला शब्द प्रधान कारण भेरीका ही शब्द कहा जाता है। हाथ या डण्डेका नहीं। अथवा, जिस प्रकार जोके अंकुरमें जौके साथ ही
१. “आकाशस्यावगाहः ।"-त. सू. ५।१८ ।
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