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षड्दर्शनसमुच्चये
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[ का० ४९. १९९६द्रव्योपकारनिरपेक्षमेव 'शकुनेरुत्पतनम्, अग्नेरूर्ध्वज्वलनं, मरुतश्च तिर्यक्पवनं स्वभावादेवानादिकालीनादिति । उच्यते । प्रतिज्ञामात्रमिदं नार्हन्तं प्रति हेतुदृष्टान्तावनवद्यौ स्तः, स्वाभाविषया गतेर्धर्मं द्रव्योपकारनिरपेक्षायास्तं प्रत्यसिद्धत्वात्, यतः सर्वेषामेव जीवपुद्गलानामासादितगति परितीनामुपग्राहकं धर्ममनुरुध्यन्तेऽनेकान्तवादिनः, स्थितिपरिणाम भाजां चाधर्मः, आभ्यां च न गतिस्थिती कियेते, केवलं साचिव्यमात्रेणोपकारकत्वं यथा भिक्षा वासयति, कारीषोऽग्निरध्यापयतीति ।
$ १९६. ननु तवापि लोकालोकव्यापि ( तवापि लोकव्यापि ) धर्माधर्मद्रव्यास्तित्ववादिनः संज्ञामात्रमेव ' तदुपकारौ गतिस्थित्युपग्रहौ' इति । अत्र जागद्यते युक्तिः, अवधत्तां भवान् । गतिस्थिती ये जीवानां पुद्गलानां च ते स्वतः परिणामाविर्भावात् परिणामिकत्र्त्ती निमित्तकारणत्रयव्यतिरिक्तोदासीन कारणान्तरेसापेक्षात्मलाभे, अस्वाभाविकपर्यायत्वे सति कदाचिद्भावात्, उदासी नकारणपानीयापेक्षा मला झषगतिवत् । इति धर्माधर्मयोः सिद्धिः ।
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शंका-पक्षियोंका आकाश में स्वच्छन्द रूपसे उड़ना, आगकी ज्वालाका ऊपरकी ओर जाना, वायुका तिरछा बहना ये सब अनादिकालीन अपने-अपने स्वभावसे ही होते हैं । इनमें धर्मद्रव्यकी कोई आवश्यकता नहीं है । स्वभाव तो परकी अपेक्षा नहीं करता । आग, पक्षी आदिका ऊपरको जलना या आकाशमें उड़ना स्वाभाविक ही है । धर्मद्रव्य इसमें क्या करेगा ।
समाधान - आपकी शंका केवल प्रतिज्ञा - कहना मात्र ही है, न तो उसमें कोई हेतु ही दिया गया है और न दृष्टान्त हो । यह सुनिश्चित है कि धर्म द्रव्यकी सहायता के बिना न अग्निका ऊपरको जलना ही हो सकता है और न वायुका तिरछा बहना हो । संसारमें ऐसी कोई भी गति नहीं है जो धर्म द्रव्यकी सहायता के बिना हो सकती हो। जैन सिद्धान्तके अनुसार स्वयं चलनेवाले सभी जीव और पुद्गलों की गतियाँ धर्म द्रव्यकी मददसे ही होती हैं । इसी तरह संसार में कोई भी ऐसी स्थिति नहीं जो अधर्म द्रव्यको सहायता के बिना हो सकती हो। ये धर्म और अधर्म किसीको चलने या ठहरने के लिए बाध्य नहीं करते किन्तु यदि पदार्थं चलते और ठहरते हैं, तो उनकी तटस्थ भाव से मदद कर देते हैं । जैसे कहीं सदाव्रत - अन्नक्षेत्र रहनेसे भिक्षा मिलनेका पूरा-पूरा सुयोग रहता है तो भिक्षुक वहीं जाकर बस जाते हैं और कहते हैं कि 'भिक्षा हमको बसा रही है।' तो क्या अन्नक्षेत्र या उनसे मिलनेवाली भीख उन भिक्षुओं को पकड़कर वहाँ बसा रही है ? बस्ने - वाले तो स्वयं भिखारी हैं, हाँ भिक्षा उसमें निमित्त अवश्य हो जाती है। इसी तरह कोई लड़का रातको कण्डेकी आगके धुंधले प्रकाश में किताब पढ़ता है । वह सहज भाव से कहता है कि 'हमें तो यह कण्डेकी अग्नि पढ़ाती है।' तो क्या कण्डेकी अग्नि जबरदस्ती उस लड़केको सोतेसे जगाकर किताब हाथ में दे पढ़ाना शुरू कर देती है ? लड़का पढ़ता तो अपनी रुचिसे हो है, हाँ उसके धुंधले प्रकाशसे किताब के अक्षर देखने में सहायता अवश्य मिल जाती है ।
$ १९६. शंका - आपने भी तो धर्म और अधर्मं द्रव्यको लोकव्यापी माननेमें कोई युक्ति नहीं दी । आपने जो उनके गति और स्थिति में सहायता करना उपकार बताये हैं वह भी संज्ञामात्र - कथन मात्र ही है, युक्तिसे सर्वथा शून्य है ।
समाधान-धर्म और अधर्म द्रव्यकी सिद्धि में हम युक्तियाँ देते हैं, आप कृपाकर सावधानी से सुनिए । जीव और पुद्गलोंकी स्वतः होनेवाली भी गति और स्थितियाँ अपनी उत्पत्ति में परिणामी, कर्ता - निर्वर्तक और निमित्त रूप तीन कारणोंके अतिरिक्त किसी चौथे हो उदासीन कारणकी अपेक्षा रखती हैं, क्योंकि वे गति और स्थितियाँ स्वाभाविक पर्यायें नहीं हैं तथा कभी-कभी होती हैं । जैसे कि स्वतः चलनेवाली मछलियों की गति जलरूपी उदासीन कारणकी अपेक्षाके बिना नहीं
१. शब्दशकुने-भ. २ । २. - पतनं म. २ । ३. " गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारः । "त. सू. ५। १७ । ४. भगवान् भ. २ । ५. नरमपेक्षा -भ, २ । ६. लाभे झष भ. २ ।
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