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- का० ४९. ६ १९५] जैनमतम् ।
२६१ गमयति, क्षितिर्वा स्वयमेव तिष्ठतो द्रव्यस्य स्थानभूयमापनीपद्यते, न पुनरतिष्ठद्व्यं बलादवनिरवस्थापयति । व्योम वावगाहमानस्य स्वत एव द्रव्यस्य हेतुतामुपैत्यवगाहं प्रति, न पुनरनवगाहमान. मवगाहयति स्वावष्टम्भात् । स्वयमेव कृषीबलानां कृष्यारम्भमनुतिष्ठतां वर्षमपेक्षाकारणं दृष्टम्, न च ननकुर्वतस्तांस्तदर्थमारम्भयद्वर्षवारि प्रतीतम्, प्रावृषि वा नवाम्भोधरध्वनिश्रवणनिमित्तोपाधोय. मानगर्भा स्वत एव प्रसूते बलाका, न चाप्रसूयमानां तामभिनवजलधरनिनादः प्रसभं प्रसाधयति । प्रतिबुध्य वा पुरुषः प्रतिबोधनिमित्तामवद्याद्विरतिमातिष्ठमानो दृष्टो; न च पुमांसमविरतं विरमयति बलात्प्रतिबोधः। न च गैत्युपकारोऽवगाहलक्षणाकाशस्योपपद्यते, किं तहि। धर्मस्यैवोपकारः स दृष्टः । स्थित्युपकारश्चाधर्मस्य नावगाहलक्षणस्य व्योम्नः । अवश्यमेव हि द्रव्यस्य द्रव्यान्तरादसाधारणः कश्चिद्गुणोऽभ्युपेयः । द्रव्यान्तरत्वं च युक्तरागमाद्वा निश्चयम् । युक्तिरनन्तरमेवाग्रतो वक्ष्यते। आगमस्त्वयम् - "कइणं भंते, दवा पण्णत्ता । गोयमा, छ दव्वा पण्णत्ता । तं जहा-धम्मत्थिकाए, अधम्मस्थिकाए, आगासस्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, जीवत्थिकाए, अद्धासमए ।" ननु धर्म
कुछ नहीं चलनेवाली मछलियोंको जबरदस्ती प्रेरणा करके धक्का देकर नहीं चलाता। पृथिवी स्क्पं ठहरनेवाले पदार्थों के ठहरने में निमित्त तो हो जाती है परन्तु जो ठहरना नहीं चाहते उन पदार्थों की टांग पकड़कर उन्हें जबरदस्ती नहीं ठहरा लेती। आकाश स्वयं अवकाश चाहनेवाले पदार्थों को यद्यपि अवकाश देकर उनका उपकार करता है पर वह नहीं रहनेवाले पदार्थोंको अवकाश लेनेके लिए बाध्य नहीं करता । रहेंगे तो अवकाश दे देगा नहीं तो अपने तटस्थ रहेगा । वर्षा स्वयं खेती करनेवाले किसानोंको खेतीमें अपेक्षा कारण है परन्तु जबरदस्ती किसी किसानके हाथमें जोतनेके लिए हल नहीं पकड़ा देती। बरसातमें पहले-पहले आकाशमें घिरनेवाले नवमेघोंकी ध्वनि सुनकर गर्भिणी बगुली स्वयं ही प्रसव करती है, मेघकी गर्जना उसे प्रसवके लिए बलात् प्रेरणा नहीं करती। पापाचार या संसारसे स्वयं विरक्त पुरुषको हो संसारको असारताका उपदेश उसके पापाचार या संसार त्यागमें निमित्त होता है, पर उपदेश पुरुषका हाथ पकड़कर उसे पापसे नहीं हटाता। इसी तरह धर्मद्रव्य किसी नहीं चलनेवालेपर जोर-जुल्म नहीं करता उन्हें बाध्य नहीं करता कि वे चलें ही। हां, वे चलेंगे तो उन्हें मदद अवश्य देगा। यह गतिमें उपकारी होना धर्म द्रव्यका ही कार्य है, यह अवकाश देनेवाले आकाशका कार्य नहीं हो सकता। इसी तरह ठहरनेमें अपेक्षा कारण होना अधर्मद्रव्यका ही कार्य है, इसे अवकाश देनेवाला आकाश नहीं कर सकता। एक द्रव्यको दूसरे द्रव्यसे पृथक् करनेवाला कोई असाधारण गुण अवश्य ही मानना होगा। यदि आकाश हो गीत और स्थिति रूप कायाम सहकारी हो जाय; तो धर्म और अधर्म द्रव्य जो कि युक्ति और आगमसे स्वतन्त्र द्रव्य सिद्ध हैं, निरर्थक ही हो जायेंगे। जब धर्म, अधर्म और आकाश तीनों ही युक्ति और आगमसे स्वतन्त्र द्रव्य हैं तब इनके असाधारण गुण तथा कार्य भी पृथक् होने ही चाहिए। इन तीनोंका स्वतन्त्र रूपसे पृथक् द्रव्य होना युक्ति तथा आगम दोनोंसे प्रसिद्ध है। युक्तियां तो आगे देंगे। आगम इस प्रकार है-"भन्ते, द्रव्य कितने हैं ? हे गौतम, द्रव्य छह कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और अद्धासमय अर्थात् काल ।
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१. स्थापनभूयमा-म. २। २. -तस्तां तद्-म. १, २, प. १,२। ३.-ध्वनिनिमित्तो-भ. २। ४. -मानामभिनव-भ. २। ५. गत्युपग्रहकारोऽव-म. २। ६.-पेत्यः म., प.१,२।-पेतव्यः 'भ. २ । ७. "छविहे दव्वे पण्णते, तं जहा-धमत्यिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवत्यिकाए, पुग्गलत्यिकाए, अद्धासमये अ, सेतं दवणामे।" -अनुयोग, व्यगुण. सू. १२४ ।
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