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________________ २६० षड्दर्शनसमुच्चये [का०४९.६१९५केषांचित्प्रत्यक्षत्वात्सन्तो निश्चीयन्ते, तथा धर्मास्तिकायादयोऽपि केवलिना प्रत्यक्षत्वात्कि न सन्तः प्रतीयन्ताम् । यथा वा परमाणवो नित्यमप्रत्यक्षा अपि स्वकार्यानुमेयाः स्युः, तथा धर्मास्तिकायादयोऽपि किं न स्वकार्यानुमेया भवेयुः । धर्मास्तिकायादीनां कार्याणि चामूनि । तत्र धर्मो गत्युपग्रहकार्यानुमेयः, अधर्मः स्थित्युपग्रहकार्यानुमेयः, अवगाहोपकारानुमेयमाकाशं, 'वर्तनाद्युपकारानुमेयः कालः, प्रत्यक्षानुमानावसेयाश्च पुद्गलाः। १९५. नन्वाकाशादयः स्वकार्यानुमेया भवन्तु, धर्माधर्मों तु कथम् । अत्रोच्यते युक्तिः, धर्माधर्मों हि स्वत एव गतिस्थितिपरिणतानां द्रव्याणामुपगृह्णीतोऽपेक्षाकारणतया आकाशकालादिवत्,न पुननिर्वर्तककारणतया, निर्वर्तकं हि कारणं तदेव जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्यं वा गतिस्थितिक्रियाविशिष्टं, धर्माधर्मो पुनर्गतिस्थितिक्रियाविशिष्टानां द्रव्याणामुपकारकावेव न पुनर्बलाद्गतिस्थितिनिर्वर्तको । यथा च सरित्तटाकहदसमद्रेष्वेवेगवाहित्वे सति मत्स्यस्य स्वयमेव संजातजिगमिषस्योपग्राहकं जलं निमित्ततयोपकरोति, दण्डादिवत्कुम्भकारे कर्तरि मृदः परिणामिन्याः, नभोवद्वा नभश्चरतां नभश्चराणामपेक्षाकारणं, न पुनस्तज्जलं गतेः कारणभावं बिभ्राणमगच्छन्तमपि मत्स्यं बलात्प्रेर्य ___ समाधान-जिस तरह देवदत्त आदिको किसी देशान्तरवर्ती पुरुषोंके प्रत्यक्ष होनेसे सत्ता मान ली जाती है उसी तरह धर्मास्तिकाय आदि भी तो केवलज्ञानियोंके प्रत्यक्ष होते हैं। अतः उनकी सत्ता भी क्यों न मानी जाय ? जिस प्रकार सदा अप्रत्यक्ष रहनेवाले भी परमाणु अपने स्थूल कार्योंके द्वारा अनुमित होते हैं उसी प्रकार धर्मास्तिकाय आदिका भी उनके गति स्थिति आदिमें सहकारिता रूप कार्योंके द्वारा अनुमान किया जाना चाहिए। धर्मास्तिकाय आदि के निम्नलिखित कार्य तो प्रसिद्ध ही हैं। गतिमें अपेक्षा कारण होना धर्म द्रव्यका कार्य है। स्थितिठहरने में सहकारी होना अधर्म द्रव्यका कार्य है, बसनेमें अवकाश देनेमें सहायता करना आकाशका कार्य है तथा पदार्थों के परिणमन आदिमें मदद करना कालद्रव्यका कार्य है। इन कार्योंके द्वारा धर्म आदि द्रव्योंका सहज ही अनुमान हो सकता है। पुद्गलके स्थूल स्कन्ध तो प्रत्यक्षसे ही देखे जाते हैं तथा सूक्ष्म स्कन्ध और परमाणओंका अनुमानसे परिज्ञान होता है। १९५. शंका-पुद्गल परमाणु तथा आकाश आदिका तो कार्यों के द्वारा अनुमान होना ठीक जंचता है, इनकी सत्ता समझमें आती है; इनके इन धर्म और अधर्म द्रव्यका अनुमान कैसे होता है ? इनके कार्य भी प्रत्यक्ष से नहीं दिखाई देते तब अनुमान किस प्रकार किया जाय ? __समाधान-जिस प्रकार आकाश और काल स्वयं रहनेवाले तथा परिणमन करनेवाले पदार्थोंमें तटस्थ रूपसे अपेक्षा कारण होते हैं उसी तरह ये धर्म और अधर्म द्रव्य स्वतः गति और स्थिति करनेवाले जीव और पुद्गलोंकी गति और स्थितिमें अपेक्षा कारण होते हैं। ये जीव पुद्गलोंकी गति और स्थितिके निर्वतंक कारण नहीं हैं। जो जीव या पुद्गल चलते या ठहरते हैं वे ही जीव और पुद्गल अपनी गति और स्थितिके निर्वर्तक कारण होते हैं। धर्म और अधर्म द्रव्य तो स्वयं चलने तथा ठहरनेवाले जीव पुद्गलोंके तटस्थ उपकारक हैं, जबरदस्ती प्रेरणा करके उन्हें बलात् चलाते या ठहराते नहीं हैं। जिस प्रकार नदी, तालाब या समुद्र आदि जलाशयों में जलके स्वभावतः बहनेसे स्वयं चलनेवाले मछली आदिका उपकार होता है, जल उनकी गतिमें साधारण अपेक्षा कारण होकर ही उपकार करता है, उसी तरह धर्म द्रव्य भी चलनेवाले पदार्थोंकी गतिमें साधारण सहकारी होता है । जिस तरह परिणामिकारण मिट्टीसे कुम्हारके घड़ा बनाने में दण्ड आदि साधारण निमित्त होते हैं या जिस प्रकार आकाशमें विचरनेवाले पक्षी आदि नभचरोंके उड़नेमें आकाश अपेक्षा कारण होता है उसी तरह धर्मद्रव्य गतिमें अपेक्षा कारण होता है। जल १. वर्तमानाद्युप-म. २ । २. -समुद्रेषु वेग-आ., क. । -समुद्रेष्वगाहित्वे म. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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