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- का०४९. ६१९४ ] जैनमतम् ।
२५९ ६१९१. तथाभिभवात्, सूर्यादितेजसाभिभूतानि ग्रहनक्षत्राणि नोपलभ्यन्ते, तत्कथं तेषामभावः । किं तु तानि सन्त्येव, पुनरभिभवान्न दृश्यन्ते । एवमन्धकारेऽपि घटादयो नोपलभ्यन्ते ।
६ १९२. समानाभिहाराच्च यथा मुद्गराशौ मुद्गमुष्टिः तिलराशौ तिलमुष्टि, क्षिप्ता सती सूपलक्षितापि नोपलभ्यते, जले क्षिप्तानि लवणादीनि वा नोपलभ्यन्ते । तत्कथं तेषामभावः । तानि सन्त्येव, पुनः समानाभिहारान्नोपलब्धिः। $ १९३. तथा चोक्तं सांख्यसप्ततौ ७।
"अतिदूरात्सामीप्यादिन्द्रियघातान्मनोनवस्थानात् ।
सौक्षम्याद्वयवधानादभिभवात्समानाभिहाराच्च ॥१॥" इति। एवमष्टधा सत्स्वभावानामपि भावानां यथानुपलम्भोऽभिहितः एवं धर्मास्तिकायादयोऽपि विद्यमाना अपि स्वभावविप्रकर्षान्नोपलभ्यन्त इति मन्तव्यम्।
5 १९४. आह परः येऽत्र देशान्तरगतदेवदत्तादयो दर्शिताः, तेऽत्रास्माकमप्रत्यक्षा अपि देशान्तरगतलोकानां केषांचित्प्रत्यक्षा एव सन्ति तेन तेषां सत्त्वं प्रतीयते, धर्मास्तिकायादयस्तु कैश्चिदपि कदापि नोपलभ्यन्ते तत्कथं तेषां सत्तां निश्चीयत इति । अत्रोच्यते; यथा देवदत्तादयः
६ १९१. सूर्य आदि अधिक तेजवाले पदार्थों के प्रखर तेजसे कम चमकीले ग्रह-नक्षत्र आदि ढंक जाते हैं, उनका प्रकाश तिरस्कृत हो जाता है, सूर्य के प्रकाशसे ही दब जाता है अतः वे दिनको नहीं दिखाई देते तो क्या दिनको ग्रह-नक्षत्र आदिका अभाव मान लिया जाय ? दिनको भी ग्रहनक्षत्र आदि बराबर मौजूद रहते हैं परन्तु सूर्यके तेजसे उनका तेज दब जाता है-अभिभूत हो जाता है अतः वे दृष्टिगोचर नहीं हो पाते। इसी तरह अन्धकारमें अभिभूत हो जानेके कारण रात्रिमें घड़े आदि नहीं दिखाई देते।
१९२. एक मुट्ठो-भर मूंग या मुट्ठो-भर तिल मूंगके ढेर या तिलके ढेरमें डाल दिये जायें तो वह समान वस्तुमें मिल जानेके कारण अच्छी तरह नहीं दिखाई देती, जलमें नमक डाल दीजिए परन्तु वह उसीमें घुल जानेसे अलग नहीं दिखता तो क्या इन सबका अभाव मान लिया जाय ? मुट्ठो-भर मूंग आदि उस मूंगके ढेरमें हैं तो सही परन्तु समानवस्तुमें घुल-मिल जानेसे पृथक् नहीं दिखाई देते। .
$१९३. सांख्यसप्ततिनामक ग्रन्थमें कहा भी है-"अत्यन्त दूरी, अति समीपता, इन्द्रियघात, मनका उस ओर उपयोग न होना, सूक्ष्मता, व्यवधान, अभिभव तथा समान वस्तुमें मिल जानेके कारण पदार्थों की अनुपलब्धि होती है।" इस तरह मौजूद पदार्थोंकी आठ कारणोंसे अनुपलब्धि होती है। धर्मास्तिकाय आदि अमूर्त पदार्थ विद्यमान हैं परन्तु स्वभावसे ही दूर अतीन्द्रिय होनेके कारण आंखोंसे नहीं दिखाई देते । अमूर्त पदार्थोंका स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे आंख आदि इन्द्रियोंके ग्राह्य नहीं हो सकते।
६१९४. शंका-आपने जिन दूर देशमें गये हुए देवदत्त आदिकी बात कही है, वे तो हम लोगोंमें-से किसी न किसीके प्रत्यक्ष हो ही जाते हैं। देवदत्त हमें न दिखे पर जिस देश में वह गया है वहाँके लोगोंको तो दिखाई देता ही है अतः उनकी सत्ता मानी जा सकती है पर ये धर्मास्तिकाय आदि तो किसीको कभी भी किसी भी तरह प्रत्यक्ष नहीं होते अतः इनकी सत्ता कैसे मानी जा सकती है ? इनका तो अनुपलब्धि होनेसे अभाव ही होना चाहिए।
१.-वः सन्त्येव तानि म.२। २. -वः सन्त्येव तानि भ. २। ३. एवमष्टधापि सत्स्व-आ., क. । ४. सत्स्वभावानामनुपलम्भोऽभिहितः म.२। ५. यत्र भ. २। ६. अपि तत्रस्थलोकानां प्रत्यक्षा एव भ.२ । ७.-सत्त्वं भ. ३।८. न्यः कस्यचित्प्र-भ.२।
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