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________________ -का० ४९. ६ १८७] जैनमतम् । २५७ ६ १८४. तत्रातिदूराद्देशकालस्वभावविप्रकर्षात् त्रिविधानुपलब्धिः। तत्र देशविप्रकर्षात् यथा कश्चित् देवदत्तो नामान्तरं गतो न दृश्यते, तत्कथं स नास्ति। सोऽस्त्येवं, परं देशविप्रकर्षानोपलब्धिः । एवं समुद्रस्य परतटं मेर्वादिकं वा सदपि नोपलभ्यते । तथा कालविप्रकर्षाद् भूता निजपूर्वजादयो भविष्या वा पद्मनाभादयो जिना नोपलभ्यन्ते, अभूवन् भविष्यन्ति च ते। तथा स्वभावविप्रकर्षान्नभोजीवपिशाचादयो नोपलभ्यन्ते, न च ते न सन्ति। . १८५. तथातिसामीप्याद् यथा नेत्रकज्जलं नोपलभ्यते तत्कथं तन्नास्ति। तदस्त्येव, पुनरतिसामीप्यान्नोपलभ्यते। $ १८६. तथेन्द्रियघाताद् यथा अन्धबधिरादयो रूपशब्दादीन्नोपलभन्ते तत्कथं रूपादयो न सन्ति । सन्त्येव, ते पुनरिन्द्रियघातान्नोपलभ्यन्ते । 5 १८७. तथा मनोऽनवस्थानाद यथा अनवस्थितचेता न पश्यति । उक्तं चसबल पदार्थके द्वारा तिरस्कृत हो जानेसे, या समान पदार्थों में मिल जानेसे मौजूद भी पदार्थ अनुपलब्ध होते हैं, वे आँखोंसे नहीं दिखाई देते ।। * १८४. अत्यन्त दूर होनेके कारण दूरदेशवर्ती पदार्थ अतीत तथा अनागतकालीन पदार्थ एवं स्वभावसे ही अतीन्द्रिय परमाणु आदिकी अनुपलब्धि होती है। मान लो देवदत्त अपने गांवसे किसी सुदूर गाँवको चला गया, इसलिए वह दिखाई नहीं देता तो क्या इतने मात्रसे उसका अभाव मान लिया जाय ? वह है तो पर दूर देशमें चले जानेके कारण दिखाई नहीं देता। इसी तरह समुद्रका दूसरा किनारा, मेरुपर्वत आदि मौजूद रहकर भी दूरदेशी होनेके कारण उपलब्ध नहीं होते । अपने मरे हए बाप-दादा-परदादा आदि पुरुखे तथा आगे होनेवाले पद्मनाभ आदि तीर्थंकर कालकी दूरीके कारण नहीं दिखाई देते। पुरुखा हुए तो अवश्य थे तथा तीर्थंकर होनेवाले भी अवश्य हैं परन्तु कालकी दुरीके कारण आँखोंसे नहीं दिखाई देते । आकाशमें रहनेवाले छोटे-छोटे जीव तथा पिशाच आदि स्वभावसे ही इन्द्रियोंके विषय नहीं हो सकते अतः वे नहीं दिखाई देते। इनमें स्वभावकी अपेक्षा अति दूरी है। परन्तु पिशाच आदिका अभाव तो नहीं किया जा सकता, वे हैं तो अवश्य ही। ६१८५. आँखोंका काजर अत्यन्त समीप होनेसे दिखाई नहीं देता, पर इससे उसका अभाव नहीं हो सकता। वह आंखोंमें लगा तो अवश्य है परन्तु अत्यन्त निकटताके कारण दिखाई नहीं देता। 5 १८६. आंख फूट जानेसे या कान तड़क जानेसे अन्धे और बहरे रूप और शब्दको नहीं जान पाते, तो क्या रूप और शब्दका अभाव मान लिया जाय? बात यह है कि रूप और शब्द सब कुछ मोजूद हैं परन्तु आंख और कान इन्द्रियोंके नष्ट हो जानेसे उनकी उपलब्धि नहीं होती। 5 १८७. चित्तका उस ओर झुकाव न होनेसे भी वह वस्तु उपलब्ध नहीं होती। जिसका चित्त उस ओर नहीं लगा वह उस वस्तुको आंख खुली रहनेपर भी नहीं देख सकता। कहा भी १. प्रकर्षानुपल-म. २ । २. अस्त्येव म.। ३. -व देश-म. १, २, प. १,२। ४. भविष्या वा पद्मनाभादयो जिना वा म., प.१,२,क.। ५.-प्यान्नेत्रकज्ज-म. २। ६. परमतिसा-म. २। ७.-घातादधबधिरादिभी रूपशब्दादयो नोपलभ्यन्ते तत्कि ते न सन्ति भ.२। ८. परमिन्द्रि-म. २। ९. -ते मनो-नवस्थानात्तथा यथा म.२।१०.-चेतनो न भ. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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