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________________ २५६ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ४९. 5 १८३-- रुक्षोष्णौ वा, ताभ्यां युक्तः । तथा कार्य द्वयणुकाद्यचित्तमहास्कन्धपर्यन्तं तस्य लिङ्गमिति । एवंविधलक्षणा निरवयवाः परस्परेणासंयुक्ताः परमाणवः । स्कन्धाः पुनद्वर्यणुकाइयोऽनन्ताणुकपर्यन्ताः सावयवाः प्रायोग्रहणादादानादिव्यापारसमर्थाः परमाणुसंघाता इति । $१८३. एते धर्माधर्माकाशकालपुद्गला जीवैः सह षड्द्रव्याणि । एष्वाद्यानि चत्वार्येकद्रव्याणि, जीवाः पुद्गलाइवानेकद्रव्याणि, पुद्गलरहितानि तानि पञ्चामूर्तानि, पुद्गलास्तु मूर्ता एवेति । ननु जीवद्रव्यस्यारूपिणोऽप्युपयोगस्वभावत्वेन स्वसंवेदनसंवेद्यत्वादस्तित्वं श्रद्धानपथमवतारयितुं शक्यम् । धर्माधर्मास्तिकायादीनां तु न जातुचिदपि स्वसंवेदनसंवेद्यत्वं समस्ति, अचेतनत्वात् । नापि परसंवेदनवेद्यता, नित्यमरूपित्वेन । तत्कथं तेषां धर्मास्तिकायादीनां सतां सत्ता श्रद्धेया स्यादिति चेत्; उच्यते, प्रत्यक्षेण योऽर्थो नोपलभ्यते स सर्वथा नास्त्येव, यथा शशविषाणमित्येकान्तेन न मन्तव्यम् । यत इह लोके द्विविधानुपलब्धिर्भवति, तत्रैका असतो वस्तुनोऽनुपलब्धिः, यथा तुरङ्गमोत्तमाङ्गसंसर्गानुषङ्गिशृङ्गस्य, द्वितीया तु सतामप्यर्थानामनुपलब्धिर्भवति । या च सत्स्वभावानामपि भावानामनुपलब्धिः, सात्राष्टधा भिद्यते। तथाहि-अतिदूरात्, अतिसामीप्यात् इन्द्रियघातात्, मनसोऽवस्थानात्, सौक्षम्यात्, आवरणात्, अभिभवात्, समानाभिहाराच्चेति । होगा, या चिकना और ठण्डा होगा, अथवा रूखा और ठण्डा होगा या रूखा और गरम होगा। द्वयणुकसे लेकर अनन्त परमाणुवाले तक महास्कन्ध रूप कार्योंसे इस परमाणुका अनुमान किया जाता है। इस तरह परमाणु निरवयव-जिसके अन्य अवयव न हों, तथा एक दूसरेसे असंयुक्त होते हैं । द्वयणुकसे लेकर अनन्त परमाणुवाले सभी स्कन्ध सावयव-हिस्सोंवाले जिनके टुकड़े हो सकें तथा परमाणुओंके संघातसे विशिष्ट सम्बन्धसे उत्पन्न होते हैं। प्रायः इन्हें रख सकते हैं, उठा सकते हैं, दूसरोंको दे सकते हैं। तात्पर्य यह कि संसारका समस्त व्यवहार पुद्गलके स्कन्धोंसे ही चलता है। ६१८३. इस तरह धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव ये छह द्रव्य होते हैं । इनमें धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य एक ही हैं। ये जीव और पुद्गल तो अनन्त द्रव्य हैं। पुद्गलको छोड़कर बाकी पांच द्रव्य अमूर्त हैं। पुद्गल मूर्त ही हैं। शंका-जीवद्रव्य यद्यपि अरूपी है फिर भी उसका ज्ञानदर्शनरूप उपयोग स्वभाव 'मैं सुखी हूँ' इत्यादि स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे अनुभवमें आता है। अतः इसकी सत्ता तो ठीक तरह समझमें आ जाती है परन्तु धर्म-अधर्म आदि द्रव्योंकी सत्तापर विश्वास नहीं किया जा सकता। ये अचेतन हैं अतः इनका स्वसंवेदन तो हो ही नहीं सकता तथा सदा अरूपी रहते हैं इसलिए दूसरा कोई भी इनको प्रत्यक्षसे नहीं जान सकता। तब आप हो बताइए कि इन्हें आंख मूंदकर बिना प्रमाणके कैसे मान लिया जाय? । समाधान -'जो प्रत्यक्षसे नहीं दिखाई देते वे गधेके सींगकी तरह सर्वथा असत् हैं, हैं ही नहीं' यह नियम किसी भी तरह युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता; क्योंकि बहुत-से अतीन्द्रिय पदार्थ हमारे प्रत्यक्ष नहीं होते अतः इतने मात्रसे उनका अभाव तो नहीं किया जा सकता। पदार्थोंको अनुपलब्धि दो प्रकारसे होती है-एक तो जो पदार्थ बिलकुल हैं ही नहीं, अत्यन्त असत् हैं उनको असत् होनेके कारण हो अनुपलब्धि, जैसे घोड़ेके सिरपर सींगकी। दूसरी अनुपलब्धि विद्यमान पदार्थों को उपलब्धिके पूरे-पूरे कारण न मिलनेसे होती है। मौजूद पदार्थोंकी अनुपलब्धि आठ कारणोंसे होती है-पदार्थों के अत्यन्त दूर होनेसे, या बहुत पास होनेसे, इन्द्रियों का नाश होनेसे, चित्तका उस ओर उपयोग न होनेसे, पदार्थोंकी अत्यन्त सूक्ष्मता होनेसे, आवरण आ जानेसे, १. नित्यरूपित्वेन भ. १, क. । नित्यारूपित्वेन म. २ । २. सत्स्वभावानामनुप म. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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