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२५४ षड्दर्शनसमुच्चये
[का० ४९. १७४कालापेक्षास्ताः। परत्वापरत्वे अपि तत्र 'चिराचिरस्थित्यपेक्षे, स्थितिश्चास्तित्वापेक्षा, अस्तित्वं च स्वत एवेति ।
१७८. ये तु कालं द्रव्यं न मन्यन्ते, तन्मते सर्वेषां द्रव्याणां वर्तनादयः पर्याया एव सन्ति, न त्वपेक्षाकारणं कश्चन काल इति ।
६ १७९. अथ पुद्गलाः। "स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः" [ त. सू. ५ ॥२३ ] । अत्र स्पर्शग्रहणमादौ। स्पर्शे सति रसादिसद्धावज्ञापनार्थम । ततोऽबादीनि चतर्गणानि स्पशित्वात. पृथिवीवत् । तथा मनः स्पर्शादिमत, असर्वगतद्रव्यत्वात्, पार्थिवाणुवदिति प्रयोगी सिद्धौ।
5 १८०. तत्र स्पर्शा हि मृदुकठिनगुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षाः । अत्र च स्निग्धरूक्षशीतोष्णाश्चत्वार एवाणुषु संभवन्ति । स्कन्धेष्वष्टावपि यथासंभवमभिधानीयाः। रसास्तिक्तकटुकषायाम्लमधुराः। लवणो मधुरान्तर्गत इत्येके, संसर्गज इत्यपरे । गन्धौ सुरभ्यसुरभी । कृष्णादयो वर्णाः । तद्वन्तः पुद्गला इति । न केवलं पुद्गलानां स्पर्शादयो धर्माः, शब्दादयश्चेति दयते । “शब्दबन्धसोक्षम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्तश्च" [ त. सू. ५।२४ ] पुद्गलाः। अत्र पुद्गलपरिणामाविष्कारी मतुप्रत्ययो नित्ययोगार्थ विहितः । तत्र शब्दो ध्वनिः। बन्धः परस्पराश्लेषलक्षणः लहुरा आदि व्यवहार भी चिरकालीन स्थिति या अल्पकालीन स्थितिकी अपेक्षासे ही होते हैं, स्थिति अस्तित्वकी अपेक्षा रखती है तथा अस्तित्व तो पदार्थोंका स्वतः ही स्वाभाविक रूपसे ही रहता है । अतः वहां अस्तित्वसे ही सब व्यवहार चलते हैं।
६१७८. जो आचार्य कालद्रव्य नहीं मानते, उनके मतसे मनुष्य लोकके बाहर या भीतर सभी जगह रहनेवाले सभी पदार्थों के वर्तना आदि पर्याय रूप ही हैं, इनके होनेमें काल नामके किसी अपेक्षा-कारणकी आवश्यकता नहीं है। पर्यायें तो स्वतः ही पदार्थों में उपजती तथा नष्ट होती रहती हैं।
१७९. अब पुद्गलद्रव्यका वर्णन करते हैं-"पुद्गलद्रव्य स्पर्श-रस-गन्ध तथा रूपवाले होते हैं।" इस सूत्र में सबसे पहले स्पर्शके प्रयोगका तात्पर्य यह है कि-'जहाँ स्पर्श होगा वहां रस आदि अवश्य ही होंगे। इस अविनाभावके ज्ञापनके लिए ही स्पर्श शब्दका आदिमें ग्रहण किया है। इसलिए हम अनुमान करते हैं कि-जल आदि सभी पुद्गल द्रव्योंमें स्पर्श-रूप-रस और गन्ध ये चारों ही गुण पाये जाते हैं क्योंकि इन सबमें स्पर्श पाया जाता है जैसे कि पृथिवीमें । इसी तरह मन भी स्पर्शवाला है। क्योंकि वह अव्यापी द्रव्य है जैसे कि पृथिवीका परमाणु।
६१८०. स्पर्श आठ प्रकारका है.-१. कोमल, २. कठोर, ३. भारी, ४. हलका, ५. ठण्डा, ६. गरम, ७. चिकना और ८. रूखा । इनमें चिकना, रूखा, गरम तथा ठण्डा ये चार ही स्पर्श परमाणुओंमें पाये जाते हैं, क्योंकि कोमलता, कठोरता या भारीपन या हलकापन स्कन्धोंमें ही पाये जाते हैं । स्कन्धोंमें तो यथासम्भव आठों ही स्पर्श पाये जाते हैं। रस पांच होते हैं-१ कड़वा, २ तीता-चरपरा, ३ कसैला, ४ खट्टा और ५ मीठा । खारे रसको कोई आचार्य मीठे रसमें ही शामिल करते हैं तथा कोई आचार्य इसे अन्य रसोंके संसर्गसे पैदा होनेवाला मानते हैं। सुगन्ध तथा दुर्गन्धके भेदसे गन्ध दो प्रकारकी है। काला, पीला, नीला आदि रूप हैं। पुद्गलोंमें रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श ये चारों गुण पाये जाते हैं । पुद्गलोंमें केवल स्पर्श आदि धर्म ही नहीं पाये जाते किन्तु शब्द आदि भी पुद्गलोंके ही धर्म-पर्यायें हैं । "शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, आकार, भेद, अन्धकार, छाया, सूर्यका ताप तथा चांदकी चाँदनी आदि इन सबवाले भी पुद्गलद्रव्य होते हैं या ये सभी पुद्गल द्रव्योंके ही पर्याय हैं, सूत्र में पुद्गलकी पर्यायोंके कथनके समय मतुप् प्रत्ययके
१. चिराचिरत्वे स्थित्यपेक्षे म. २। २. पृथिव्यादीनि तथा भ. २ । ३. सुरभिदुरभी म. २ । ४ दय॑न्ते म.२।५. विष्कारे मतु-आ., क.।
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