SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५३ -का० ४९ ६ १७७] जैनमतम् । $ १७४. परिणामो 'द्विविधः, अनादिरमूर्तेषु धर्मादिषु, मूर्तेषु तु सादिरभ्रेन्द्रधारादिषु स्तम्भकुम्भाम्भोरुहादिषु च। ऋतुविभागकृतो वेलाविभागकृतश्च परिणामस्तुल्यजातीयानां वनस्पत्यादीनामेकस्मिन्काले विचित्रो भवति । ६१७५. प्रयोगविनसाभ्यां जनितो जीवानां परिणमनव्यापारः करणं क्रिया तस्या अनुग्राहकः। तद्यथा-नष्टो घटः, सूर्य पश्यामि, भविष्यति वृष्टिरित्यादिका अतीतादिव्यपदेशाः परस्परासंकीर्णा यदपेक्षया प्रवर्तन्ते, स कालः। $१७६. इदं परमिदमपरमितिप्रत्ययाभिधाने कालनिमित्ते । $ १७७. तदेवं वर्तनाद्युपकारानुमेयः कालो 'द्रव्यं मानुषक्षेत्रे। मनुष्यलोकाबहिः कालद्रव्यं नास्ति । सन्तो हि भावास्तत्र स्वयमेवोत्पद्यन्ते व्ययन्त्यवतिष्ठन्ते च । अस्तित्वं च भावानां स्वत एव, न तु कालापेक्षम् । न च तत्रत्याः प्राणापाननिमेषोन्मेषायुःप्रमाणादिवृत्तयः कालापेक्षाः, तुल्यजातीयानां सर्वेषां युगपदभवनात् । कालापेक्षा शास्तुल्यजातीयानामेकस्मिन् काले भवन्ति, न विजातीयानाम् । ताश्च प्राणादिवृत्तयस्तद्वतां नैकस्मिन्काले भवन्त्युपरमन्नि चेति । तस्मान्न ६१७४. परिणाम दो प्रकारका है-एक अनादि परिणाम और दूसरा सादि परिणाम । अमृत धर्म आदि द्रव्योंके परिणमनकी कोई शुरूआत नहीं है, वह अनादि है। मूर्त पदार्थों का बादल, इन्द्रधनुष आदि रूपसे परिणमन सादि परिणाम है। इनके प्रारम्भका समय निश्चित है। पुद्गल द्रव्य खम्भा बन जाता है, घड़ा बन जाता है तथा कमल आदि रूप हो जाता है। यह सब सादि परिणाम है। एक हो जातिके वृक्षोंमें ऋतुभेद तथा समय भेदसे एक ही समयमें विचित्रविचित्र परिणमन देखे जाते हैं। १७५. पुरुषके प्रयोगसे अथवा स्वाभाविक रूपसे परिणमनके लिए होनेवाला व्यापार क्रिया है। काल इस क्रियामें सहायक होता है । घड़ा फूट गया, सूर्यको देख रहा हूँ, वृष्टि होगी इत्यादि भूत, वर्तमान तथा भविष्यत् कालके सब व्यवहार कालकी अपेक्षासे ही होते हैं। ये व्यवहार एक दूसरेसे भिन्न हैं, अतीत व्यवहार वर्तमानसे तथा वर्तमान भविष्यत्से । १७६. 'यह जेठा है, यह लहुरा है, यह पुराना है, यह नया है' इत्यादि ज्ञान तथा व्यवहार भी कालके निमित्तसे ही होते हैं। $१७१. इस तरह इस मनुष्यलोकमें वर्तना परिणाम आदि चिह्नोंसे कालद्रव्यका अनुमानपहचान-किया जाता है । मनुष्य लोकसे बाहर कालद्रव्यका सद्भाव नहीं है। मनुष्य लोकके बाहरसे विद्यमान पदार्थ स्वयं ही उत्पन्न होते हैं, नष्ट होते हैं तथा ठहरते हैं। वहाँके पदार्थों की सत्ता भो स्वभावसे ही है । मनुष्य लोकके बाहरके पदार्थों के परिणमन या अस्तित्वमें कालद्रव्यकी कोई अपेक्षा नहीं है। वहाँके प्राणियोंके श्वासोच्छवास, पलकोंका झपकना, आँखोंका खलना आदि व्यापार कालकी अपेक्षासे नहीं होते; क्योंकि सजातीय पदार्थोंके उक्त व्यापार एक साथ नहीं होते। सजातीय पदार्थोंके एक साथ होनेवाले ही व्यापार कालको अपेक्षा रखते हैं विजातीय पदार्थों के नहीं । वहाँके प्राणियोंके श्वासोच्छ्वासादि व्यापार न तो एक कालमें उत्पन्न ही होते हैं और न नष्ट ही होते हैं जिससे उन्हें कालकी आवश्यकता है। वहाँके पदार्थों में पुराना, नया या जेठा और १. "अनादिरादिमांश्च ॥४२॥ तत्रानादिररूपिषु धर्माधर्माकाशजीवेष्विति । रूपिष्वादिमान् ॥४३॥ रूपिषु तु द्रव्येषु आदिमान् परिमाणोऽनेकविधः स्पर्शपरिणामादिरिति ।-त. सू. मा. ५४२,४३ । २. -धोऽमूर्तेषु धर्मादिष्वनादिः मूर्तेषु म. २ । ३. -था नष्टो आ., क. । ४. द्रव्यं मानुषलोकाः-भ. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy