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________________ पशनसमुच्चये २५२ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ४९ ६ १७३समयो द्रव्यपर्यायोभयात्मैव, द्रव्यार्थरूपेण प्रतिपर्यायमुत्पादव्ययधर्मापि स्वरूपानन्यभूतक्रमाक्रम भाव्यनाद्यपर्यवसानानन्तसंख्यपरिमाणः, अत एव च स स्वपर्यायप्रवाहव्यापी द्रव्यात्मना नित्यो. ऽभिधीयते । अतीतानागतवर्तमानावस्थास्वपि कालः काल इत्यविशेषश्रुतेः । यथा ह्येकः परमाणुः पर्यायैरनित्योऽपि द्रव्यत्वेन सदा सन्नेव न कदाचिदसत्त्वं भजते, तथैकः समयोऽपीति । $१७३. अयं च कालो न 'निर्वतकं कारणं नापि परिणामि कारणं, किंतु स्वयं संभवतां भावानामस्मिन् काले भवितव्यं नान्यदेत्यपेक्षाकारणम् । कालकृता वर्तनाद्या वस्तूनामुपकाराः। अथवा वर्तनाद्या उपकाराः कालस्य लिङ्गानि, ततस्तानाह "वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च" [त. सू. ५।२२] तत्र वर्तन्ते स्वयं पदार्थाः, तेषां वर्तमानानां प्रयोजिका कालाश्रया वृत्तिवर्तना, प्रथमसमयाश्रया स्थितिरित्यर्थः१। परिणामो द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन परिस्पन्देतरप्रयोगेजस्वभावः परिणामः। तद्यथा-वृक्षस्याङ्करमूलाद्यवस्थाः परिणामः आसीदङ्करः, संप्रति स्कन्धवान्, ऐषमः पुष्पिष्यतीति । पुरुषद्रव्यस्य बालकुमारयुवाद्यवस्थाः परिणामः। एवमन्यत्रापि । आदिके उदय तथा अस्तसे प्रकट होता है। किन्हीं आचार्योंके मतसे यह द्रव्यरूप है। अतः एकसमय रूप होकर भी उसमें द्रव्य-गुण और पर्यायें पायी जाती हैं । यद्यपि कालमें प्रतिक्षण परिणमन होनेसे उत्पाद और व्यय होते रहते हैं फिर भी द्रव्य दृष्टिसे वह जैसाका तैसा रहता है उसके स्वरूपमें कोई परिवर्तन नहीं होता-वह कभी भी कालान्तर रूप या अकाल रूप नहीं हो जाता। वह क्रमसे तथा एक साथ होनेवाली अनन्तपर्यायोंमें अपनी अखण्ड सत्ता रखता है। इसीलिए द्रव्य रूपसे अपनी समस्त पर्यायोंके प्रवाहमें पूरी तरह व्याप्त होनेके कारण वह नित्य कहा जाता है। अतीत, वर्तमान या भविष्यत् कोई भी अवस्था क्यों न हो सभीमें 'काल, काल' यह साधारण व्यवहार पाया ही जाता है। जिस प्रकार परमाणु पर्यायोंके परिवर्तित होते रहनेसे अनित्य होता है फिर भी द्रव्यरूपसे कभी भी अपने परमाणुत्वको न छोड़नेके कारण नित्य है, सदा सत् है, कभी भी असत् नहीं होता, उसी तरह समय रूप काल भी द्रव्यरूपसे नित्य है वह कभी भी अपने कालत्वको नहीं छोड़ सकता। १७३. यह काल न तो नितंक कारण है और न परिणामी कारण ही किन्तु अपने-आप परिणमन करनेवाले पदार्थोंके परिणमनमें 'ये परिणमन इसी कालमें होने चाहिए दूसरे कालमें नहीं' इस रूपसे अपेक्षा कारण होता है । बलात् किसी में परिणमन नहीं कराता। कालके द्वारा पदार्थोके वर्तना परिणमन आदि उपकार होते हैं। अथवा वर्तना आदि उपकार कालके चिह्न हैं इसीलिए वर्तना आदिका निरूपण करते हैं। "वर्तना परिणाम क्रिया तथा परत्वापरत्व ये कालद्रव्यके उपकार हैं।" पदार्थ स्वयं वर्तते हैं-हो रहे हैं, उन स्वयं वर्तनेवाले पदार्थों को सहायता देनेवाली कालकी शक्ति वर्तना कहलाती है। प्रथम समयमें होनेवाली पदार्थों की स्थिति वर्तना है। अपने निजतत्त्वको न छोड़कर अपने मूल स्वभावमें हेर-फेर किये बिना एक अवस्थाको छोड़कर दूसरी अवस्थाको धारण करना परिणाम कहलाता है। परिणाम हलन-चलन रूप भी होता है तथा बिना हिले-डुले ही अवस्थाओंमें हेर-फेर होनेसे भी होता है। जैसे-वृक्षकी अंकुर जड़ आदि अवस्थाएं परिणाम हैं। यही वृक्ष पहले एक नन्हा-सा अंकुर था वही अब बड़ी-बड़ी डालियोंवाला वृक्ष हो गया और इसी में आगे फूल लगेंगे। यही मनुष्य बच्चेसे कुमार तथा कुमारसे जवान हो गया है, बूढ़ा भी यही होगा। इस तरह वृक्षत्व और मनुष्यत्वको कार्यम रखते हुए ही अवस्थाएं बदली हैं । इसी तरह समस्त पदार्थों में परिणाम होता रहता है। १. -नन्तरमसंख्यपरि-म, २। २. निर्वर्तकका-मा., क.। ३. नान्यस्मिन्नित्यपे-म.। ४. वर्तमानाद्या भ. २। ५. प्रथमसमयस्थितिरि-म. २। ६. -णः स्वभावः परि-म..। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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