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________________ -का० ४९.६ १७२] जैनमतम्। २५१ यत्र सोऽलोकः लोकालोकयोापकमवगाहोपकारकमिति स्वत एवावगाहमानानां द्रव्याणामवगाहदायि भवति न पुनरनवगाहमानं पुद्गलादि बलादवगाहयति । अतो निमित्तकारणमाकाशमम्बुवन्मकरादीनामिति । अलोकाकाशं कथमवगाहोपकारक. अनवगाहात्वादिति चेत । उच्यते। तद्धि व्याप्रियेतैवावकाशदानेन यदि गतिस्थितिहेतू धर्माधर्मास्तिकायौ तत्र स्यातां, न च तो तत्र स्तः, तदभावाच्च विद्यमानोऽप्यवगाहनगुणो नाभिव्यज्यते किलालोकाकाशस्येति । __६ १७२. कालोऽधतृतीयद्वीपान्तर्वर्ती परमसूक्ष्मो निविभाग एकः समयः। स चास्तिकायो न भण्यते, एकसमयरूपस्य तस्य निःप्रदेशत्वात् । आह च 'तस्मान्मानुषलोकव्यापी कालोऽस्ति समय एक इह । एकत्वाच्च स कायो न भवति कायो हि समुदायः ॥१॥" स च सूर्यादिग्रहनक्षत्रोदयास्तादिक्रियाभिव्यङ्गय एकीयमतेन द्रव्यमभिधीयते । स चैकअलोक कहलाता है तथा जहां आकाशके साथ ही साथ अन्य पांच द्रव्य भी पाये जाते हैं वह लोक है। आकाश लोक और अलोक दोनों जगह व्याप्त है। आकाश द्रव्य समस्त स्वयं रहनेवाले द्रव्योंको अवकाश देता है । जो नहीं रहते उन्हें जबरदस्ती अवकाश देनेकी प्रेरणा नहीं करता। रहो तो अवकाश दे देगा, न रहो तो वह प्रेरणा नहीं करेगा। इसलिए आकाशद्रव्य अवकाश देनेके कारण अपेक्षा निमित्तकारण है। जिस प्रकार स्वयं जलमें रहनेवाले मछली आदि प्राणियोंको पानी अवकाश देता है, पर उनको बलात् पानी में रहनेको बाध्य नहीं करता उसी प्रकार आकाश भी रहनेवाले द्रव्योंको स्थान-आकाश देता है, प्रेरणा नहीं करता। शंका-अलोकमें तो अन्य कोई द्रव्य रहता ही नहीं है अतः अलोकाकाश अवगाह रूप उपकार किसका और कैसे करता है। जब कोई बसनेवाला ही नहीं है तब बसायेगा ही किसे? ___समाधान-यदि वहां चलने और ठहरने में कारण धर्म और अधर्म द्रव्य होते और जीवादि वहाँ तक पहुँच सकते तो अवश्य ही अलोकाकाश उन्हें अवकाश देता, पर न तो वहां धर्मादि ही हैं और न जीवादि हो । अतः अलोकाकाशमें अवकाश देनेका गुण विद्यमान होते हुए भी प्रकट कार्यरूपमें नहीं दिखाई देता। आकाश एक अखण्ड द्रव्य है. अता लोकाकाशमें होनेवाला अवगाह अलोकाकाशमें भी होता ही है। आकाश जब एक अखण्ड द्रव्य है तब उसके दो परिणमन नहीं लोकम अवकाश दे तथा अलोकमें अवकाश न दे। उसमें तो एक ही अवकाश देने रूप परिणमन होगा। हाँ, अलोकाकाशके प्रदेशोंमें उसका कार्य प्रकट नहीं दिखाई देता, पर उस गुणका परिणमन तो अवश्य होता ही है। ६१७२. कालद्रव्य मनुष्य लोकमें विद्यमान है। जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड तथा आधा पुष्करद्वीप इस तरह ढाई द्वीपोंमें ही मनुष्य पाये जाते हैं। अतः इन ढाई द्वीपको ही मनुष्यलोक कहते हैं। कालद्रव्यका परिणमन या कार्य इन्हीं ढाई द्वीपोंमें देखा जाता है अतः कालद्रव्य इन ढाई द्वीपोंमें ही वह है । यह अत्यन्त सूक्ष्म है तथा अविभागी एक समय शुद्ध कालद्रव्य है। यह एक प्रदेशी होने के कारण अस्तिकाय नहीं कहा जाता, क्योंकि प्रदेशोंके समुदायको अस्तिकाय कहते हैं। वह एक समय मात्र होनेके कारण निःप्रदेशी प्रदेशसे रहित है। कहा भी है-"कालद्रव्य एक समय रूप है तथा मनुष्य लोकमें व्याप्त है। वह एक प्रदेशी होनेसे अस्तिकाय नहीं कहा जा सकता; क्योंकि काय तो प्रदेशोंके समुदायको कहते हैं।" सूर्य-चन्द्र ग्रह-नक्षत्र आदिके उगने और डूबनेसे-इनके उदय और अस्तसे कालद्रव्यका परिज्ञान होता है। कालद्रव्यका कार्य इन्हीं सूर्य १. उद्धृतेयं त. मा. टी. १२२ । २. -मते तद्रव्य -भ. २ । ३. चैकः सम-भ. १, २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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