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________________ २५० षड्दर्शनसमुच्चये [का० ४९. ६१६८६ १६८. निमित्तकारणं च द्वेषा निमित्तकारणमपेक्षाकारणं च । यत्र दण्डादिषु प्रायोगिकी वैनसिकी च क्रिया भवति तानि दण्डादीनि निमित्तकारणम् । यत्र तु धर्मादिद्रव्येषु वैनसिक्येव क्रिया तानि निमित्तकारणान्यपि विशेषकारणताज्ञापनार्थमपेक्षाकारणान्युच्यन्ते । १६९. धर्मादिद्रव्यगतक्रियापरिणाममपेक्षमाणं जीवादिकं गत्यादिक्रियापरिणति पुष्णातोति कृत्वा ततोऽत्र धर्मोऽपेक्षाकारणम् । एवमधर्मोऽपि लोकव्यापितादिसकलविशेषणविशिष्टो 'धर्मवन्निविशेषं मन्तव्यः, नवरं स्थित्युपग्रहकारी स्वत एव स्थितिपरिणतानां जीवपुद्गलानां स्थितिविषये अपेक्षाकारणं वक्तव्यः । ६ १७०. एवमाकाशमपि लोकालोकव्यापकमनन्तप्रदेशं नित्यमवस्थितमरूपिद्रव्यमस्तिकायोऽवगाहोपकारकं च वक्तव्यं, नवरं लोकालोकव्यापकमिति । $ १७१. ये केचनाचार्याः कालं द्रव्यं नाभ्युपयन्ति किंतु धर्माविद्रव्याणां पर्यायमेव; तन्मते धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवाख्यपञ्चास्तिकायात्मको लोकः। ये तु कालं द्रव्यमिच्छन्ति, तन्मते षड़द्रव्यात्मको लोकः, पश्चानां धर्मादिद्रव्याणां कालद्रव्यस्य च तत्र सद्भावात् । आकाशद्रव्यमेकमेवास्ति ६१६८. निमित्तकारण भी दो प्रकारके होते हैं-एक तो शुद्ध निमित्तकारण तथा दूसरे अपेक्षा निमित्तकारण । जिन निमित्तकारणोंमें स्वाभाविक तथा कर्ताके प्रयोगसे क्रिया होती है, वे दोनों प्रकारकी क्रियावाले दण्ड आदि कारण शुद्ध निमित्तकारण हैं। परन्तु जिन धर्मास्तिकाय आदिमें केवल स्वाभाविक ही परिणमन होता हो, कर्ताके प्रयोगसे जिसमें क्रियाकी सम्भावना न हो वे निमित्तकारण अपेक्षाकारण कहलाते हैं। यद्यपि साधारण रूपसे अपेक्षाकारण भी निमित्तकारण ही हैं, पर उनमें केवल स्वाभाविक परिणमन रूप विशेषता होनेके कारण ये अपेक्षाकारण कहे जाते हैं। ६१६९. धर्मद्रव्यमें होनेवाले स्वाभाविक परिणमनकी अपेक्षा करके ही चलनेवाले जीवादि द्रव्य अपनी गतिको पुष्ट करते हैं । स्वयं चलनेवाले जीवादि द्रव्योंकी गतिमें धर्मद्रव्यकी तटस्थभावसे अपेक्षा होती है अतः धर्मद्रव्य जीवादिको गतिमें अपेक्षाकारण कहा जाता है। धर्मद्रव्यकी तरह अधर्मद्रव्य भी लोकव्यापी, अमूर्त, नित्य, अवस्थित आदि विशेषणोंवाला है परन्तु जहां धर्मद्रव्य गतिमें अपेक्षा कारण होता है वहां अधर्मद्रव्य स्थिति-ठहरनेमें अपेक्षा कारण होता है । स्वयं ठहरनेवाले जीव और पुद्गल अधर्मद्रव्यकी अपेक्षा रखकर ही ठहरते हैं । अधर्मद्रव्य तटस्थभावसे उनके ठहरने में सहायक होता है उन्हें ठहरनेकी प्रेरणा नहीं करता। वे ठहरते हैं तो उन्हें सहायता दे देता है। ६१७०. आकाशद्रव्य भी धर्म और अधर्म द्रव्यकी तरह नित्य, अवस्थित, अमूर्त तथा अस्तिकाय-बहुप्रदेशी है । इतनी विशेषता है कि यह अनन्त प्रदेशवाला है तथा लोक और अलोक सर्वत्र व्याप्त है। इससे बड़ा कोई द्रव्य नहीं है। यह अन्य समस्त द्रव्योंके अवगाह-रहने में अपेक्षाकारण होता है। १७१. कोई आचार्य कालको स्वतन्त्र नहीं मानते, इनका अभिप्राय है धर्म आदि जड़ और चेतन द्रव्योंकी पर्यायें ही काल हैं। इनके मतसे लोक धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव ये पांच अस्तिकाय रूप हैं। जो आचार्य कालको स्वतन्त्र छठी द्रव्य मानते हैं उनके मतानुसार इस लोकमें छहों द्रव्य पाये जाते हैं अतएव लोक षड्द्रव्यात्मक है, इसमें धर्मादि पांच तथा काल ये छह ही द्रव्य हैं। जहां केवल आकाश ही आकाश है, आकाशके सिवाय दूसरा द्रव्य नहीं है वह १.-वन्निविशेषेण मन्त-भ.२। २. वक्तव्यं ये के च-भ.२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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