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________________ -का. ४९. ६ १६७] जैनमतम् । २४९ परिणामबाह्यवर्त्यभिधीयते । न खलु मूर्ति स्पर्शादयो व्यभिचरन्ति, सहचारित्वात् । यत्र हि रूपपरिणामस्तत्र स्पर्शरसगन्धैरपि भाव्यम् । अतः सहचरमेतच्चतुष्टयमन्ततः परमाणावपि विद्यते। १६४. तथा द्रव्यग्रहणाद्गुणपर्यायवान् प्रोच्यते; 'गुणपर्ययवद्रव्यम्' [त. सू. ५.३८] इति वचनात् । $ १६५. तथास्तयः-प्रदेशाः प्रकृष्टा देशाः प्रदेशा निविभागानि खण्डानीत्यर्थः । तेषां कायः समुदायः कथ्यते । ६१६६. तथा लोकव्यापीति वचनेनासंख्यप्रदेश इति वचनेन च लोकाकाशप्रदेशप्रमाणप्रदेशो निदिश्यते । तथा स्वत एव गतिपरिणतानां जीवपुद्गलानामुपकारकरोऽपेक्षाकारणमित्यर्थः। १६७. कारणं हि त्रिविधमुच्यते, यथा घटस्य मृत्परिणामिकारणम्, दण्डादयो ग्राहकाश्च निमित्तकारणम्, कुम्भकारो निर्वर्तकं कारणम् । तदुक्तम् "निर्वर्तकं निमित्तं परिणामी च विधेष्यते. हेतुः । कुम्भस्य कुम्भकारो, धर्ता मृच्चेति समसंख्यम् ॥१॥" यह अनादि अनन्त है कभी भी अपने द्रव्यपनेको नहीं छोड़ सकता। अरूपीका अर्थ है अमूर्त, रूपादिसे रहित निराकार। रूप-रस-गन्ध तथा स्पर्श जिसमें पाये जाय उसे मूर्त कहते हैं और जिसमें रूपादि न हों वह अमूर्त कहलाता है। स्पर्श आदिवाली वस्तु किसी न किसी मूर्ति-शक्लमें रहेगी ही। तात्पर्य यह कि रूप-रस आदि तथा मतिका सहचारी सम्बन्ध है। दोनों एक साथ रहते हैं । ये रूप आदि भी नियत सहचारी हैं जहाँ एक होगा वहां दूसरा अवश्य होगा। जहां रूप होगा वहाँ स्पर्श-रस-गन्ध भी अवश्य ही होंगे। यह तो हो सकता है कि कहीं कोई गुण अनुभूत रहे और कहीं उद्भूत । पर सत्ता सबकी सब पुद्गलोंमें पायी जाती है । ये रूपादि चारों गुण परमाणुसे लेकर स्कन्ध पर्यन्त सभी मूर्त पदार्थों में पाये जाते हैं। १६४. द्रव्य कहनेका मतलब है कि-धर्म में गुण तथा पर्यायें पायी जाती हैं । "गुण और पर्यायवाला द्रव्य होता है" यह पूर्वाचार्यका सिद्धान्त वाक्य है। १६५. अस्तिकायका तात्पर्य है-बहुप्रदेशो अस्ति-है काय-जिनके टुकड़े न हो सकें ऐसे अविभागी प्रदेशोंका समदाय जिसमें हों उसे अस्तिकाय-बहादेशी-कहते हैं। १६६. लोकव्यापी और असंख्यात प्रदेशीका मतलब है कि-धर्मद्रव्य लोकाकाशके असंख्यात प्रदेशवाले सभी प्रदेशोंमें पूरे रूपसे व्याप्त है, इसके भी लोकाकाशकी तरह असंख्यात प्रदेश हैं। यह स्वयं गमन करनेवाले जीव और पुद्गलोंकी गतिमें सहायता देता है, उनकी गतिमें अपेक्षा कारण है। प्रेरणा करके इनको चलाता नहीं है किन्तु यदि ये चलते हैं तो इनके चलने में सहकारी होता है। $ १६७. कारण तीन प्रकारके होते हैं-१. परिणामिकारण, २. निमित्तकारण, ३. निर्वर्तक कारण। जो कारण स्वयं कार्यरूपसे परिणमन करे, कार्यके आकारमें बदल जाय वह परिणामी कारण है जैसे कि घड़ेमें मिट्टी। निमित्त कारण वे हैं जो स्वयं कार्यरूपसे परिणत तो न हों पर कर्ताको कार्यको उत्पत्तिमें सहायक हों, जैसे घड़ेकी उत्पत्तिमें दण्ड-चक्र आदि। कार्यका कर्ता निवर्तक कारण होता है जैसे कि घड़ेकी उत्पत्तिमें कुम्हार । कहा भी है-"निवर्तक, निमित्त और परिणामीके भेदसे कारण तीन प्रकारके होते हैं । घड़ेकी उत्पत्तिमें कुम्हार निर्वर्तक-बनानेवाला-कारण है, धर्ता-धारण करनेवाले चाक आदि निमित्तकारण हैं-तथा मिट्टी परिणामी-उपादानकारण है। १. खलु मूर्तेऽस्य स्पर्शा-भ. २ । २. यः प्रकृष्ट भ. २ । ३. -ख्येयप्रदेश-म. २ । ४. -णामं च विधेआ. क. । ५. उधृतेयं त. भा. टी. ५१७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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