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२४८ षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ४९. ६ १६१ - १६१. एवमत्रानेकान्यनुमानानि नैकाश्च युक्तयो विशेषावश्यकटीकादिभ्यः स्वयं कर्त ( वक्त ) व्यानीति । प्रोक्तं विस्तरेण प्रथमं जीवतत्त्वम् ।
६१६२. अजीवतत्त्वं व्याचिख्यासुराह–'यश्चैतद्विपरीतवान्' इत्यादि । यश्चैतस्माद्विपरीतानि विशेषणानि' विद्यन्ते यस्यासावेतद्विपरीतवान् सोऽजीवः समाख्यातः । 'यश्चैतद्वैपरीत्यवान्' इति पाठे तु यः पुनस्तस्माज्जीवाद्वैपरीत्यमन्यथात्वं तद्वानजीवः स समाख्यातः। अज्ञानादिधर्मेभ्यो रूपरसगन्धस्पर्शादिभ्यो भिन्नाभिन्नो नरामरादिभवान्तराननुयायी ज्ञानावरणादिकर्मणामकर्ता तत्फलस्य चाभोक्ता जडस्वरूपश्चाजीव इत्यर्थः।।
१६३. स च धर्माधर्माकाशकालपुद्गलभेदात् पश्चविधोऽभिधीयते। तत्र धर्मो लोकव्यापी नित्योऽवस्थितोऽरूपी द्रव्यमस्तिकायोऽसंख्यप्रदेशो गत्युपग्रहकारी च भवति । अत्र नित्यशब्देन स्वभावावप्रच्युत आख्यायते। अवस्थितशब्देनान्यूनाधिक आविर्भाव्यते । अन्यूनाधिकश्चानादिनिधनतेयत्ताभ्यां न स्वतत्त्वं व्यभिचरति । तथा अरूपिग्रहणादमूर्त उच्यते। अमूर्तश्च रूपरसगन्धस्पर्शउसके ज्ञान आदिके साधन मात्र हैं।
$१६०. अथवा, आत्मा इन्द्रियोंसे भिन्न है, क्योंकि किसी अन्य जरियेसे जानकर किसी अन्य जरियेसे ही वस्तुको ग्रहण करता है। जो घड़ा आदि पदार्थों को अन्य जरियेसे देखकर किसी दूसरे जरियेसे ही उन्हें उठाता है वह उन जरियोंसे भिन्न होता है जैसे पूरबकी खिड़कीसे घड़ेको देखकर पश्चिमवाली खिड़कीसे उस घड़ेको उठाने वाला देवदत्त उन खिड़कियोंसे भिन्न है उसी तरह आत्मा भी आंखसे घट आदिको देखकर हाथोंसे उठाता है अतः वह भी इन आंख और हाथ आदिसे भिन्न सत्ता रखता है। यदि आत्मा आंख रूप हो तब वह घड़ेको कैसे उठायेगा? इसी तरद यदि हाथ रूप ही हो तो देखेगा कैसे ? अतः दोनों इन्द्रियोंसे भिन्न होकर भी इनको अपने अधीन रखनेवाला उनपर यथेच्छ हुक्म चलानेवाला एक आत्मा अवश्य है। जो सभी इन्द्रियोंका अधिष्ठाता, नियन्ता तथा यथेच्छ उपयोग करनेवाला है।
१६१. इस तरह अनेकों अनुमान तथा युक्तियाँ आत्माकी सत्ताको स्पष्ट रूपसे सिद्ध करती हैं। इन युक्तियोंकी विशेष चर्चा विशेषावश्यक भाष्यको टीका तथा अन्य जीवसिद्धि आदि ग्रन्थोंसे देख लेनी चाहिए। इस तरह ज्ञानादि स्वरूपवाला जीवतत्त्वका वर्णन हुआ।
१६२. अब अजीवतत्त्वका व्याख्यान करते हुए कहते हैं कि-'जीवसे उलटे लक्षणोंवाला अजीव होता है' इत्यादि । जो जीवसे विपरीत लक्षणवाला हो वह अजीव पदार्थ है । 'एतद्वैपरीत्यवान्' यह पाठ भी कहीं-कहीं मिलता है। इसका तात्पर्य है-जिसमें जीवसे विपरीतताउलटापन पाया जाये वह अजीव पदार्थ है। तात्पर्य यह है कि जहाँ जीवमें ज्ञान आदि धर्म पाये जाते हैं वहाँ अजीवमें अज्ञानादि धर्म पाये जायेंगे। यह अजीव अज्ञान आदि धर्मोंसे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि गुणोंसे कथंचिद् भिन्न भी है तथा अभिन्न भी, यह मनुष्य नरक आदि पर्यायोंको धारण नहीं करता, न यह ज्ञानावरण आदि कर्मोंका कर्ता ही है और न इसके फलका भोक्ता ही। तात्पर्य यह कि अजीव पदार्थे सब रूपसे जड़-अचेतन है।
१६३. अजीव पदार्थके पांच भेद हैं-१धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय, ३ आकाशास्तिकाय, ४ काल, ५ पुद्गलास्तिकाय । धर्मद्रव्य चलनेवाले जीव और पुद्गलोंकी गतिमें तटस्थभावसे सहायक होता है। यह समस्त लोकमें व्याप्त है, नित्य है, अवस्थित है, अरूपी है, तथा असंख्यात प्रदेशवाला, अस्तिकाय द्रव्य है। नित्यका तात्पर्य है स्वभावका नष्ट नहीं होना। अवस्थितका मतलब है इसमें न्यूनाधिकता नहीं होती, यह एक ही रहता है न तो दो होता है और न शून्य ही।
१. -नि यस्या-भ. २। २. -वः समा-म. २, प. ।। ३. -स्याभोक्ता म. १, २, प.., २। ४. धर्माधर्मकालाकाशपुद्गल-भ. २।
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