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________________ - का० ४९. $१६० ] जैनमतम् । २४७ वस्त्वनुपलम्भात् । प्रयोगश्चात्र - इन्द्रियेभ्यो व्यतिरिक्त आत्मा, तद्वयापारेऽप्यर्थानुपलम्भात् । इह यो यद्वापारेऽपि यैरुपलभ्यानर्थान्नोपलभते स तेभ्यो भिन्नो दृष्टः यथास्थगित गवाक्षोऽप्यन्यमनस्क - तयानुपयुक्तोऽपश्यंस्तेभ्यो देवदत्त इति । ६१५९. अथवेदमनुमानम् - समस्तीन्द्रियेभ्यो भिन्नो जीवोऽन्येनोपलभ्यान्येन विकारग्रहणात् । इह योऽन्येनोपलभ्यान्येन विकारं प्रतिपद्यते स तस्माद्भिन्नो दृष्टः, यथा प्रवरप्रासादोपरिपूर्ववातायनेन रमणीमवलोक्यापरवातायनेन "समायातायास्तस्याः करादिना कुचस्पर्शादिविकारमुपदर्शयन्देवदत्तः । तथा चायमात्मा चक्षुषाम्लीकामश्नन्तं दृष्ट्वा रसनेन हृल्लासलालास्रवणादिकं विकारं प्रतिपद्यते । तस्मात्तयोः (ताभ्यां ) भिन्न इति । १६० अथवेन्द्रियेभ्यो व्यतिरिक्त आत्मा अन्येनोपलभ्यान्येन ग्रहणात् । इह यो घटादिकमन्येनोपलभ्यान्येन गृह्णाति स ताभ्यां भेदवान् दृष्टः यथा पूर्ववातायनेन घटमुपलभ्यापर वातायनेन गृह्णानस्ताभ्यां देवदत्तः । गृह्णाति च चक्षुषोपलब्धं घटादिकमर्थं हस्तादिना "जीवः, ततस्ताभ्यां भिन्न इति । इनका व्यापार होनेपर भी आत्माका उपयोग - चित्त व्यापार न होनेपर पदार्थोंका परिज्ञान नहीं होम | कितनी ही बार चित्त दूसरी ओर होनेसे सामनेको वस्तु भी नहीं दिखाई देती, पासकी बात भी नहीं सुनाई देती । प्रयोग - आत्मा इन्द्रियोंसे भिन्न है, क्योंकि इन्द्रियों का व्यापार होनेपर भी कभी पदार्थों की उपलब्धि नहीं होती । जिस शक्तिके न होनेसे इन्द्रियाँ पदार्थको नहीं जान पातों वह शक्ति आत्मा है । जिस प्रकार खिड़की खुली हो, पर जब देवदत्त अन्यमनस्क होकर कुछ विचार करता है तब उसे खिड़की में से कुछ भी नहीं दिखाई देता उसी तरह दूसरी ओर उपयोग होनेसे आँखें आदि खिड़कियां खुली रहनेपर भी जब सामनेकी वस्तु नहीं दिखाई देती, पासका मधुर संगीत भी नहीं सुनाई देता तब यह मानना ही होगा कि आँख कानके सिवाय कोई दूसरा जाननेवाला अवश्य है । जिसका ध्यान उस ओर न होनेसे दिखाई या सुनाई नहीं दिया । वही ध्यानवाली वस्तु आत्मा है । यदि इन्द्रियां ही आत्मा होतीं तो आँख खुली रहनेपर सदा दिखाई देना चाहिए था, कानसे सदा सुनाई देना चाहिए था। पर इनकी सावधानी रहनेपर भी जिस चित्तव्यापार उपयोग या ध्यानके अभावसे सुनाई और दिखाई नहीं दिया वही आत्मा है। $ १५९. अथवा, आत्मा इन्द्रियोंसे भिन्न है क्योकि वह आंखों आदिसे पदार्थको जानकर स्पर्शन या रसना आदि इन्द्रियोंमें विकारको प्राप्त होता है। जो किसी अन्य जरियेसे पदार्थको जानकर अन्य जरिये विकार प्रदर्शन करे वह उन जरियोंसे भिन्न होता है जैसे मकान की पूरबकी खिड़की से किसी सुन्दरीको देखकर उसे पश्चिम की ओर जाता देख पश्चिमकी खिड़की में जाकर हाथ आदिसे कुचमर्दनको चेष्टाएँ दिखानेवाला देवदत्त । यदि आत्मा इन्द्रियरूप ही होता तो एक इन्द्रिय पदार्थको जानकर दूसरी इन्द्रियमें विकार नहीं हो सकता था । यह तो दोनों इन्द्रियों के स्वामीको ही हो सकता है । किसीको इमली खाते देखकर हृदय में उसके खानेकी इच्छा तथा जोभमें पानी आना इस बातको सूचित करता है कि आँख, हृदय और जीभके ऊपर पूरा-पूरा अधिकार रखनेवाला कोई नियन्ता अवश्य है जो यथेच्छ जिस किसी भी जरिये से अपने विकारोंको दिखाता है । रमणीको आँखोंसे देखकर हृदय में गुदगुदी होना तथा इन्द्रिय में विकार होना आत्माको इन्द्रियोंसे भिन्न होकर भी उनका अधिष्ठाता माने बिना नहीं बन सकता । अतः यह निश्चित है कि इन सब इन्द्रियरूपी झरोखोंसे यथेच्छ देखनेवाला इन सबका स्वामी आत्मा स्वतन्त्र पदार्थ है, इन्द्रियाँ तो १. गवाक्षेऽप्यन्य - आ. क. 1 २. यातस्तस्याः भ. २ । ३. रसने हुल्लास - म. १, २, ५. १, २ । ४. -ति चक्षु-भ. २ । ५. जीवस्ताभ्यां भ. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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