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गादीनां समुदितानां सद्भावात्, स्त्रीवत् ।
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$ १५४. अत्र समुदितानां जन्मादीनां ग्रहणात् 'जातं तद्दधि' इत्यादिव्यपदेश दर्शनाद्दध्यादिभिरचेतनैर्न व्यभिचारः शङ्कयः ।
१५५. तदेवं पृथिव्यादीनां सचेतनत्वं सिद्धम् । आप्तवचनाद्वा सर्वेषां सात्मकत्वसिद्धिः । $ १५६. द्वीन्द्रियादिषु च कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यजलचरस्थलचरखचरपश्वादिषु न hrifecareera fवगानमिति । ये तु तत्रापि विप्रतिपद्यन्ते तान् प्रतीदमभिधीयते ।
षड्दर्शनसमुच्चये
$ १५७. इन्द्रियेभ्यो व्यतिरिक्त आत्मा, इन्द्रियव्युपरमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणात् । प्रयोगोत्र- इह यो यदुपरमे यदुपलब्धानामर्थानामनुस्मर्ता स तेभ्यो व्यतिरिक्तः, यथा गवा भैरुपलेधानामर्थानां गवाक्षोपरमेऽपि देवदत्तः । अनुस्मरति चायंमात्मान्धबधिरत्वादिकालेऽपीन्द्रियोपलब्धानर्थान् अतः स तेभ्योऽर्थान्तरमिति ।
१५८. अथवेन्द्रियेभ्यो व्यतिरिक्त आत्मा, इन्द्रियव्यापृतावपि कदाचिदनुपयुक्तावस्थायां सचेतनता निर्विवाद रूपसे सिद्ध हो जाती है उसी तरह वनस्पतियां भी जन्म, जीर्णता, उखड़ना म्लान होना आदि अवस्थाओंको धारण करनेके कारण सचेतन सिद्ध हो जाती हैं ।
$ १५४. शंका - दही भी उत्पन्न होता है, परन्तु वह तो अचेतन है अतः उत्पन्न होने के कारण ही किसीको चेतन कैसे कहा जा सकता है ?
[ का. ४९. $१५४ -
समाधान- हमने केवल उत्पन्न होने को ही सचेतनतामें हेतु नहीं बताया है किन्तु जो उत्पन्न होकर बढ़ता है, बूढ़ा होता है, रोगी होता है तथा अन्तमें मरता है इस जन्म- जरा - रोग और मरणकी चतुष्टीको एक साथ हेतु रूपमें उपस्थित किया है । दही आदि अचेतन पदार्थ कारणों से उत्पन्न तो हो सकते हैं पर उनमें सिलसिलेवार बुढ़ापा आदि अवस्थाएं तो हरगिज नहीं पायी जातीं । अतः दही आदिसे व्यभिचार देना नासमझीकी ही बात है ।
$ १५५. इस तरह पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति सभी में चेतना सिद्ध हो जाती है । अथवा वीतरागी सर्वज्ञ देवके वचन रूप निर्दोष आगमसे सभी पृथिवी आदि सचेतन सिद्ध हो ही जाते हैं ।
$ १५६. कीड़े, चींटियाँ, भौंरा, मनुष्य, जलचर- मछली आदि, थलचर हाथी घोड़ा आदि, खर- चिड़िया आदि पक्षी इन सब द्वीन्द्रिय आदिको चेतन माननेमें तो किसीको विवाद नहीं है । ये कीड़े मकोड़े आदि तो निर्विवाद रूपसे जीव माने जाते हैं, इनकी सजीवता प्रत्यक्षसे ही सिद्ध है । परन्तु जो परमनास्तिक व्यक्ति इस प्रत्यक्ष सिद्ध वस्तुमें भी विवाद करते हैं उनके अनुग्रह के लिए कुछ युक्तियाँ देते हैं
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$ १५७. आत्मा इन्द्रियोंसे भिन्न है, क्योंकि उसे इन्द्रियोंके नष्ट हो जानेपर भी उनके द्वारा जाने गये पदार्थों का भलीभाँति स्मरण होता है । जो जिसके नष्ट होनेपर भी उसके द्वारा जाने गये पदार्थों का स्मरण करता है वह उनसे भिन्न है, जैसे कि मकान की खिड़कियोंके नष्ट हो जानेपर भी उन खिड़कियोंके द्वारा देखे गये पदार्थोंका स्मरण करनेवाला देवदत्त खिड़कियोंसे भिन्न वस्तु है उसी प्रकार आँख के फूट जाने और कानके तड़क जानेसे अन्धा और बहरा देवदत्त भी देखे और सुने गये पदार्थों का स्मरण करनेके कारण आँख और कान आदि इन्द्रियोंसे अपनी पृथक् स्वतन्त्र सत्ता रखता है । यदि इन्द्रिय ही आत्मा हो तो इन्द्रियोंके नाश होनेपर स्मरण आदि ज्ञान नहीं होने चाहिए।
$ १५८. अथवा आत्मा इन्द्रियोंसे भिन्न है क्योंकि आँख कान आदिके खुले रहनेपर भी १. 'स्त्रीवत्' नास्ति म. १, २, प. १, २ । २. ग्राहकाणां ज्ञातं तद्वृद्धीत्यादि उपपदेशदर्शना-म. २ । ३. - वि ( तदनुस्मर्ता ) दे-म. २ ।
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