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________________ - का० ४९ $ १५३ ] जैनमतम् । द्विशिष्टकान्तिरसबलोपचयादि तथा वनस्पतिशरीरस्यापि विशिष्टेष्टने भोजला दिसेका द्विशिष्टरसवीर्यस्निग्धत्वादि । तथा यथा स्त्रीशरीरस्य तथाविधदौहृदपूरणात्पुत्रादिप्रसवनं तथा वनस्पतिशरीरस्यापि तत्पूरणात्पुष्पफला दिप्रसवनमित्यादि । ६१५३. तथा च प्रयोगः - वनस्पतयः सचेतना बालकुमारवृद्धावस्था - प्रतिनियत वृद्धि - स्वापप्रबोधस्पर्शादिहेतुकोल्लाससंकोचाश्रयोपसर्पणादिविशिष्टानेकक्रिया - छिन्नावयवम्लानि-प्रतिनियत प्रदेशाहारग्रहण - वृक्षायुर्वेदाभिहितायुष्केष्टानिष्टाहारादिनिमित्तकवृद्धिहानि - आयुर्वेदोदिततत्तद्रोग - विशिष्टौषधप्रयोग संपादित वृद्धिहानिक्षतभुग्नसंरोहण- प्रतिनियत विशिष्टशरीररसवीर्यस्निधत्व रूक्षत्व - विशिष्ट दौहृदादिमत्त्वान्यथानुपपत्तेः विशिष्टस्त्रीशरीरवत् । अथवैते हेतवः प्रत्येकं पक्षेण सह प्रयोक्तव्या अयं वा संगृहीतोक्तार्थः प्रयोगः - सचेतना वनस्पतयो, जन्मजरामरणबढ़ने लगता है उसके घाव आदि मलहम पट्टी करनेसे भर जाते हैं, हड्डी टूट जानेपर भी उसमें से अंकुर निकलकर वह फिरसे जुड़ जाती है- जो हाथ-पैर टेढ़े हो जाते हैं वे सीधे हो जाते हैं उसी तरह वनस्पति में भी औषधिका सींचना या लेप करनेसे उसकी म्लानता दूर हो जाती है वह अपनी प्रकृत दशामें आकर हरी-भरी हो फलने-फूलने लगती है । जिस तरह रसायनका सेवन करने या घो आदि पौष्टिक पदार्थोंके खानेसे मनुष्यका शरीर गुलाबकी तरह लाल होकर चमकने लगता है वह अत्यन्त ताकतवर तथा रसीला बन जाता है उसी तरह वनस्पतियाँ भी समयपर हुई अच्छी बरसातसे तथा अनुकूल खाद-पानी आदिके मिलने से खूब हरी-भरी हो स्वादु और पुष्ट फलोंसे लद जाती -। उनके सुहावने और लुभावने फलोंको देखकर जीभमें पानी आ जाता है । जिस तरह गर्भिणी स्त्रीके दोहले — इच्छाओं की पूर्ति करनेसे सुन्दर शक्तिशाली पुत्रका जन्म होता है उसी तरह बकुल आदि वनस्पतियोंके सुन्दरीके पेरसे ताड़ित होना आदि दोहोंको पूरा करते ही उनमें फूल-फल आदि हरभराकर लग आते हैं। इस तरह मनुष्यों के शरीर तथा वनस्पतियोंकी समानताका कहाँ तक वर्णन करें ? इस समानतासे स्पष्ट मालूम होता है कि वनस्पतियाँ हम लोगोंके शरीरकी तरह सचेतन हैं । $ १५३. इस विवेचन के आधारसे हम अनुमान कर सकते हैं कि - वनस्पतियां सचेतन हैं, 1. क्योंकि वे अंकुर, पौधे तथा वृक्षके रूपमें बचपन, जवानी आदिको पाती हैं, खाद-पानी मिलने से उनकी अंकुर, पत्ते निकलना, छोटी-छोटी डालियां फूटना आदि रूपसे क्रमश: सिलसिलेवार वृद्धि होती है, वे सोती हैं, जागती हैं, छू जानेसे लजाकर मुरझा जाती हैं, सुन्दरीके पाद-प्रहार आदिसे फूलती हैं, लताएं आश्रयको पाकर उससे लिपट जाती हैं, उनकी टहनी - पत्ते आदि तोड़ने से वे कुम्हलाने लगती हैं, वे जड़ोंके द्वारा खाद-पानी रूप आहारको ग्रहण करती हैं, वृक्षोंके वैद्यक शास्त्र के अनुकूल खाद-पानी से उनकी आयुकी वृद्धि तथा प्रतिकूल खाद-पानीसे आयुका हास बताया गया है, वृक्षायुर्वेद में वनस्पतियोंके अनेक रोगोंका वर्णन किया गया है, और विशेष औषधियोंके सींचने या लेप करनेसे उनके काटे हुए अवयवोंकी पूर्ति आदि देखी जाती है, औषधि प्रयोगसे उनके रोग नष्ट हो जाते हैं, पोषक खाद मिलनेसे उनमें स्वादु तथा पुष्ट फल लगते हैं, तथा बकुल आदि वृक्षोंको विचित्र-विचित्र दोहले होते हैं । इन सब कारणोंसे वनस्पतिमें चेतनता सिद्ध होती है । जैसे किसी स्त्रीके शरीर में उपरोक्त सब बातें देखकर उसकी सजीवता निश्चित होती है उसी तरह वनस्पतिमें भी इन सब हेतुओंसे चेतनाका निर्विवाद निश्चय हो जाता है । इनहेतुओं का प्रयोग तत्तत् अंशोंको पक्ष बनाकर करना चाहिए। हम अब इन सब हेतुओंका संक्षिप्त रूपसे एक ही हेतुमें समावेश करके प्रयोग करते हैं- वनस्पतियाँ सजीव हैं, क्योंकि उनमें जन्म - बुढ़ापा मरण तथा रोग आदि होते हैं। किसी स्त्रीके शरीर में जन्मादि देखकर उसकी १. विशिष्टनभो - म. २ । Jain Education International २४५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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