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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ४९. ६ १५१रणम् । तथा वल्लीनां वृत्त्याद्याश्रयोपसर्पणम् । तथा लज्जालुप्रभृतीनां हस्तादिसंस्पर्शात्पत्रसंकोचादिका परिस्फुटा क्रियोपलभ्यते । अथवा सर्ववनस्पतेविशिष्टतुष्वेव फलप्रदानं, न चैतदनन्तराभिहितं तरुसंबन्धिक्रियाजालं ज्ञानमन्तरेण घटते । तस्मात्सिद्धं चेतनावत्त्वं वनस्पतेरिति ।
$ १५१. तथा यथा मनुष्यशरीरं हस्ताविच्छिन्नं शुष्यति, तथा तरुशरीरमपि पल्लवफलकुसुमादिच्छिन्नं 'विशोषमुपगच्छदृष्टम् । न चाचेतनानामयं धर्म इति । तथा यथा मनुष्यशरीरं स्तनक्षीरव्यञ्जनौदनाद्यौहाराभ्यवहारादाहारकं; एवं वनस्पतिशरीरमपि भूजलाद्याहाराभ्यवहारादाहारकम् । न चैतदाहारकत्वमचेतनानां दृष्टम् । अतस्तत्सदभावात्सचेतनत्वमिति ।
१५२. तथा यथा मनुष्यशरीरं नियतायुष्क तथा वनस्पतिशरीरमपि नियतायुष्कम् । तथाहि-अस्य दशवर्षसहस्राण्युत्कृष्टमायुः। तथा यथा मनुष्यशरीरमिष्टानिष्टाहारादिप्राप्त्या वृद्धिहान्यात्मकं तथा वनस्पतिशरीरमपि। तथा यथा मनुष्यशरीरस्य तत्तद्रोगसंपर्काद्रोगपाण्डुत्वो· दरवृद्धिशोफकृशत्वाङ्गलिनासिकानिम्नीभवनविगलनादि तथा वनस्पतिशरीरस्यापि तथाविधरो. गोद्भवात्पुष्पफलपत्रत्वगाद्यन्यथाभवनपतनादि । तथा यथा मनुष्यशरीरस्यौषधप्रयोगाद्वृद्धिहानिक्षतभुग्नसंरोहणानि तथा वनस्पतिशरीरस्यापि । तथा यथा मनुष्यशरीरस्य रसायनस्नेहाधुपयोगारात्रिमें चन्द्रका उदय होनेपर विकसित होता है। मेघकी वृष्टिका अवसर आते ही शमीवृक्ष झड़ने लगता है । लताएं योग्य आश्रयको खोजकर उनपर चढ़ जाती हैं। लजवन्ती आदि हाथकी अंगुली दिखाते ही लजाकर मुरझा जाती हैं। उनके पत्ते संकुच जाते हैं। ये सब विशिष्ट क्रियाएं वनस्पतिमें चैतन्यका स्पष्ट अनुमान कराती हैं। सभी वनस्पतियां अपनी-अपनी ऋतुमें ही फल देती हैं। यह सब वनस्पतियोंका विचित्र खेल ज्ञानके बिना नहीं हो सकता। अतः वनस्पतिमें चैतन्य मानना चाहिए।
१५१. देखो, यदि आदमीका हाथ कट जाय तो उसका सारा शरीर दुःखी होकर म्लान हो जाता है उसी प्रकार पत्ते, फूल या फलोंके टूटनेसे वृक्षमें भी म्लानता-मुरझाना देखा जाता है। यदि वृक्ष अचेतन होते; तो उनमें यह सब मुरझाना, लजाना या फूलना-फलना नहीं हो सकता था। जिस प्रकार मनुष्यका शरीर मांका दूध, शाक, भात आदिका आहार करता है उसी तरह वनस्पति शरीर भी मिट्टी-पानी आदिको ग्रहण कर पुष्ट होता है। अचेतन तो भोजनपोषक वस्तुको ग्रहण नहीं कर सकता। अतः वनस्पतिका मनुष्य शरीरके समान आहार पाकर पुष्ट होना उसकी सचेतनताका ज्वलन्त प्रमाण है।
६१५२. जिस तरह मनुष्यके शरीरकी आयु-उमर निश्चित है, उमर पूरी होनेपर वह निर्जीव हो जाता है उसी तरह वृक्ष भी अपनी उमर पूरी होनेपर उखड़ जाते हैं। वृक्ष अधिकसे अधिक दश हजार वर्ष तक ठहरते हैं। जिस प्रकार इष्ट-अनुकूल भोजन मिलनेसे मनुष्यके शरीरमें ताजगी तथा बाढ़ देखी जाती है और प्रतिकूल भोजन मिलनेपर रोग आदि होकर शरीर क्षीण हो जाता है उसी तरह वनस्पतिमें भी अनुकूल खाद-पानी मिलनेसे बाढ़ एवं प्रतिकूल खाद आदि मिलनेसे म्लानंता तथा क्षय देखा जाता है। जिस प्रकार मनुष्यके शरीरमें अनेक पाण्डु, जलोदर आदि रोग हो जानेपर पीलापन, पेटका फूल जाना, सूजन, दुर्बलता, अंगुली-नाक आदिका टेढ़ा हो जाना तथा गलकर गिर जाना आदि अनेकों विकार देखे जाते हैं उसी तरह वनस्पतियोंमें भी रोग हो जानेपर फूल-फल-पत्ते-छाल आदिका पीला पड़ जाना, झड़ जाना आदि विकार बराबर होते हैं । जिस प्रकार औषधि सेवनसे मनुष्यका शरीर नीरोग होकर
१. विशेषमुप-म. २, क.। २. हाराम्यवहारकं म. २ । ३. अतस्तद्भावात् म. १, २, प. १, २ । ४. तत्तद्रोगपांडुत्वो-म. २।
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