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-का० ४९. ६१५०] जैनमतम् ।
२४३ मनुष्यशरीरसमानधर्मभाञ्जि भवन्ति । तथाहि-यथा पुरुषशरोरं बालकुमारयुववृद्धतापरिणामविशेषवत्त्वाच्चेतनावदधिष्ठितं 'प्रस्पष्टचेतनाकमुपलभ्यते तथेदं वनस्पतिशरीरमपि, यतो जातः केतकतरुर्बालको युवा वृद्धश्च संवृत्त इति, अतः पुरुषशरीरतुल्यत्वात् सचेतनो वनस्पतिरिति । तथा यथेदं मनुष्यशरीरमनवरतं बालकुमारयुवाद्यवस्थाविशेषैः प्रतिनियतं वर्धते, तथेदमपि वनस्पतिशरीरमङ्करकिसलयशाखाप्रशाखादिभिविशेषैः प्रतिनियतं वर्धत इति । तथा यथा मनुष्यशरीरं ज्ञानेनानुगतं एवं वनस्पतिशरीरमपि, यतः शमोपुन्नाटसिद्धे (ख) सरकासुन्दकबब्बूलागस्त्यामलकोकडिप्रभृतीनां स्वापविबोधतस्तद्भावः। तथाधोनिखातद्रविणराशेः स्वप्ररोहणावेष्टनम् । तथा वटपिप्पलनिम्बादीनां प्रावृड्जलधरनिनादशिशिरवायुसंस्पर्शादङ्करोझेदः । तथा मत्तकामिनीसनपुरसुकुमारचरणताडनादशोकतरोः पल्लवकुसुमोभेदः। तथा युवत्यालिङ्गनात् पनसस्य । तथा सुरभिसुरागण्डूषसेकाबकुलस्य । तथा सुरभिनिर्मलजलसेकाच्चम्पकस्य । तथा कटाक्षवीक्षणात्तिलकस्य । तथा पञ्चमस्वरोद्गाराच्छिरोषस्य विरहकस्य च पुष्पविकिरणम् । तथा पद्मादीनां प्रातर्विकसनं, घोषातक्यादिपुष्पाणां च संध्यायां; कुमुदादीनां तु चन्द्रोदये । तथासनमेघप्रवृष्टौ शम्या अवक्षसजीव मानते हैं उसकी चेतना अत्यन्त स्पष्ट रहती है ठीक यही सब स्वभाव या परिणमन वृक्ष आदि वनस्पतियोंमें पाये जाते हैं । 'यह केतकी पौधा लगा, बढ़ा, जवान हुआ तथा बूढ़ा हुआ ये सब व्यवहार वनस्पतियोंमें बराबर किये जाते हैं अतः मनुष्य शरीरकी तरह इसे भी सचेतन मानना चाहिए; क्योंकि बिना चेतन अधिष्ठाताके शरीरमें यह नियत-सिलसिलेवार परिणमन नहीं हो सकता। जिस तरह मनुष्यका शरीर दूजके चाँदकी तरह दिन-प्रतिदिन बालकसे किशोर और किशोरसे जवानीकी बहार लेता है, तथा जवानसे बूढ़ा होकर नियत परिणमन करता रहता है उसी प्रकार वृक्षोंमें भी अंकुर निकलना, छोटी-छोटी कोंपलोंका लहलहाना, डालियोंका फूटना, फूल तथा फलोंका लगना आदि अनेकों क्रमिक परिणमन पाये जाते हैं और इन्हीं सिलसिलेवार परिणमनोंसे वनस्पतियां एक महान वक्षकी शकलमें आ जाती हैं। जिस तरह मनुष्यके शरीरमें हेयोपादेयका परिज्ञान रहता है, आँखमें धूल आते ही वह स्वभावतः बन्द हो जाती है तथा साँप आदिसे स्वभावतः बचनेकी प्रवृत्ति होती है उसी तरह वनस्पतियोंमें भी भले-बुरेका ज्ञान पाया जाता है। देखो, शमी, प्रपुन्नाट, सिद्ध ( ऋद्धि), सरका ( हिंगुपत्री) सुन्दक ( ? ) बब्बूल, अगस्त्य, आमलकी, इमली आदि वनस्पतियाँ सोती हैं और समयपर जाग जाती हैं । कुछ जमीनमें गड़े हुए धनको अपनी जड़ोंमें लपेट लेती हैं और इस तरह उस धनसे अपनापा जोड़ती हैं। जब बरसात आती है, ठण्डी-ठण्डी हवा बहने लगती है और बादल जोर-जोरसे गरजने लगते हैं तब बड़, पोपर तथा नीम आदिके पेड़ोंमें अपने-आप अंकुर फूटने लगते हैं। अशोक वृक्षकी रसिकता तो अपूर्व ही है, उसे तो जब सुन्दर मत्त युवतो पैरमें बिछुए पहनकर धीरेसे प्रेमपूर्वक अपने चरणोंसे ताड़ती है तभी वे हजरत सिहरकर फूल उठते हैं, उनमें नयी-नयी कोपलें लहलहा आती हैं । पनस-कटहलका पेड़ तो स्त्रीका आलिंगन करके फूलता-फलता है। बकुल वृक्षपर जब कोई सुन्दरी सुगन्धित सुराका कुल्ला करे तब उसमें पत्ते और फूल लगते हैं। चम्पाके लिए सुगन्धित निर्मल जलसे सींचिए तब वह फूलेगा। तिलक वृक्ष सुन्दरीको एक तिरछी चितवनसे ही अपना हृदय उड़ेल देता है उसमें एक तिरछी चितवनसे ही पत्ते और फूल लग जाते हैं। पंचम स्वरसे शिरीष और विरहक वृक्षके सामने गाइए, वे उससे मत्त होकर अपने फूलोंको झड़ा देंगे। सूर्यका उदय होते ही प्रातः कमल खिल जाते हैं। घोषातकी आदिके फूल सायंकाल खिलते हैं। कुमुद
१. प्रशस्तस्पष्ट-म. २ । २. शरीरं यतो म. १, प. १, २, आ., क. । ३. प्रपुनाट, प्रपुनाद, प्रपुंनड, प्रघुनाट, प्रनाड, प्रघुनाल-इत्यपि पाठान्तराणि कोषेषु आ षु च । Cassia Tora: Cavia Aluta. ४. प्रभृतिवनस्पतीनां भ. २।
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