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________________ २४२ षड्दर्शनसमुच्चये [ का. ४९. ६१४९परिणामः, शरीरस्थत्वात्, खद्योतदेहपरिणामवत् । तथा आत्मसंयोगपूर्वकोऽङ्गारादीनामूष्मा, शरीरस्थत्वात्, ज्वरोष्मवत् । न चादित्यादिभिरनेकान्तः, सर्वेषामुष्णस्पर्शस्यात्मसंयोगपूर्वकत्वात् । तथा सचेतनं तेजः, यथायोग्याहारोपादानेन वृद्धयादिविकारोपलम्भात्, पुरुषवपुर्वत् । एवमादिलक्षणैराग्नेयजन्तवोऽवसेयाः। १४९. यथा देवस्य स्वशक्तिप्रभावान्मनुष्याणां चाञ्जनविद्यामन्त्रैरन्तर्धाने शरीरं चक्षुषानुपलभ्यमानमपि विद्यमानं चेतनावच्चाध्यवसोयते, एवं वायावपि चक्षुर्गाचं रूपं न भवति, सूक्ष्मपरिणामात् परमाणोरिव वह्निदग्धपाषाणखण्डिकागताचित्ताग्नेरिव वा। प्रयोगश्चायम्चेतनावान् वायुः, अपरप्रेरिततिर्यगेनियमितदिग्गतिमत्त्वात्, गवाश्वादिवत् । तिर्यगेव गमननियमादनियमितविशेषणोपादानाच्च परमाणुना न व्यभिचारः, तस्य नियमितगतिमत्त्वात्, “जीवपुद्गलयोरनुश्रेणिः इति वचनात् । एवं वायुरशस्त्रोपहतश्चेतनावानवगन्तव्यः। ६ १५०. बकुलाशोकचम्पकाद्यनेक विधवनस्पतीनामेतानि शरीराणि न जीवव्यापारमन्तरेण प्रकाश आत्माके संयोगसे उत्पन्न हुआ है, क्योंकि वह शरीरमें रहनेवाला प्रकाश है जैसे कि जुगुनूके चमकदार शरीरमें पाया जानेवाला प्रकाश। अंगार आदिकी गरमी आत्माके संयोगसे उत्पन्न हुई है, क्योंकि वह शरीरमें पायी जानेवाली गरमी है जैसे ज्वर चढ़नेपर बढ़नेवाली शरीरकी गरमी। सूर्य आदिकी गरमी तथा प्रकाश भी सूर्य जीवके संयोगसे ही होता है अतः हमारे हेतु निर्बाध हैं, उनमें कोई व्यभिचार नहीं है। यथा, अग्नि सचेतन है, क्योंकि वह यथायोग्य इंधन आदिके मिलने या न मिलनेपर बढ़ती और घटती है। जैसे कि मनुष्यका शरीर आहारादिके मिलनेपर बढ़ने लगता है तथा दाना-पानी न मिले तो दुबला हो जाता है, अतः इस विकारके कारण मनुष्यका शरीर सचेतन है, ठीक उसी तरह इंधन डालिए अग्नि धधककर जल उठेगी; इंधन नहीं रहेगा तो धीरे-धीरे बुझने लगेगी, अतः अग्निको भी सचेतन मानना चाहिए । इत्यादि अनेक हेतुओंसे अग्नि जीवोंकी सिद्धि कर लेनी चाहिए। १४९. जिस प्रकार देवोंका शरीर अपनी स्वाभाविक शक्तिके कारण दृष्टिगोचर नहीं' होता अथवा किसी अंजन विद्या या मन्त्रके प्रयोगसे बहुत-से सिद्ध योगी अपने स्थूल शरीरको अन्तर्हित-न दिखाई देने लायक बना लेते हैं उसी तरह वायु भी यद्यपि आँखोंसे नहीं दिखाई देती फिर भी देव या योगियोंके शरीरकी तरह वह सचेतन है। वायुका इतना सूक्ष्म परिणमन है कि उसमें रहनेवाला रूप आँखोंसे नहीं दिखाई देता। जिस प्रकार आगसे तपाये गये गरम पत्थरमें आगके अचेतन परमाणु विद्यमान हैं फिर भी सूक्ष्मपरिणमनके कारण दिखाई नहीं देते उसी तरह वायुका रूप भी सूक्ष्म परिणमनके कारण दृष्टिगोचर नहीं होता । प्रयोग-वायु सचेतन है क्योंकि वह स्वभावसे तिरछी चलती है। उसको गतिका कोई नियम नहीं है कि वह अमुक दिशाको ही चले। जबतक कोई दूसरा प्रेरणा नहीं करता तबतक वायु स्वभावतः तिरछी ही बहतो है। जैसे कि बिना हांके स्वभावसे यहां-वहां विचरनेवाले गाय-घोड़ा आदि पशु । "जीव और पुद्गल दोनों ही अनुश्रेणि-आकाशके प्रदेशोंकी रचनाके अनुसार सीधी गति करते हैं" ऐसा कथन होनेसे परमाणुकी गतिका नियम मौजूद है वह वायुको तरह अनियत-जहाँ चाहे वहाँ गति करनेवाला नहीं है और न वह तिरछा ही जा सकता है अतः हेतु परमाणुसे व्यभिचारी नहीं है । अतः इस हेतुसे वायुमें सजीवता सिद्ध हो ही जाती है। इसी तरह शस्त्र या बीजना ( पंखा) आदिसे आघात न पाये हुए वायुको सचेतन समझ लेना चाहिए। $ १५०. जिस तरह मनुष्यके शरीरमें बचपन, जवानी, बुढ़ापा आदि परिणमन होनेसे उसे १. यथा म. २ । २. तिर्यग नियमित-म, २।३. -णीति म.२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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