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________________ - का० ४९. $ १४८] जैनमतम् । २४१ हेत्वोव्यंभिचारः शङ्कयः, तयोरप्यवकरमध्योत्पन्नमृत जीवशरीरनिमित्तत्वाभ्युपगमात् । ६१४७. ननु मृतजीवानां शरीराणि कथमुष्णस्पर्शवाष्पयोनिमित्तीभवन्तीति चेत् ? उच्यतेयथाग्निदाधपाषाणखण्डिकासु'जलप्रक्षेपे विध्यातादप्यग्नेरुष्णस्पर्शवाष्पो भवेतां तथा शीतसंयोगे सत्यप्यत्रापीति । एवमन्यत्रापि वाष्पोष्णस्पर्शयोनिमित्तं सचित्तमचित्तं वा यथासंभवं वक्तव्यम् । इत्थमेव च शीतकाले पर्वतनितम्बस्य निकटे वृक्षादीनामधस्ताच्च य ऊष्मा संवेद्यते, सोऽपि मनुष्यवपुरूष्मवज्जीवहेतुरेवावगन्तव्यः। एवं ग्रीष्मकाले बाह्यतापेन तेजसशरीररूपाग्नेर्मन्दीभवनात् जलादिषु यः शीतलस्पर्शः, सोऽपि मानुषशरीरशीतलस्पर्शवज्जीवहेतुकोऽभ्युपगमनीयः, तत एवंविधलक्षणभाक्त्वाज्जीवा भवन्स्यप्कायाः। ६१४८. यथा रात्रौ खद्योतकस्य देहपरिणामो जीवप्रयोगनिवृत्तशक्तिराविश्चकास्ति, एव. मङ्गारावीनाम िप्रतिविशिष्टप्रकाशादिशक्तिरनुमीयते जीवप्रयोगविशेषाविर्भावितेति । यथा वा ज्वरोष्मा जीवप्रयोगं नातिवर्तते, एषैवोपमाग्नेयजन्तूनाम् । न च मृता ज्वरिणः क्वचिदुपलभ्यन्ते, एवमन्वयव्यतिरेकाम्यामग्नेः सचित्तता ज्ञेया। प्रयोगश्चात्र-आत्मसंयोगाविर्भूतोऽङ्गारादीनां प्रकाशभाप भी अकारण ही होंगी उनमें पानीके तैजस शरीरवाले आत्माको निमित्त क्यों माना जाय? . समाधान-उस घूरेमें पैदा होकर मरनेवाले जीवोंके मृतशरीर ही घूरेकी गरमी तथा भापमें कारण हैं। १४७. शंका-यह तो एक अजीब ही बात आपने कही। कहीं मृत शरीर भी गरमी तथा भापमें कारण हो सकते हैं ? समाधान-जैसे आगमें तपाये गये पत्थर या ईंटके टुकड़ोंपर पानी डालनेसे गरमी तथा भाप निकलती है उसी तरह ठण्डकके समय घूरेसे भी गरमी और भाप निकलना युक्तियुक्त ही है। अतः भाप तथा गरमी में यथासम्भव कहीं सचेतन गरम पदार्थ और कहीं अचेतन गरम पदार्थ कारण होते हैं। इसी तरह जब अच्छी कड़ाकेको सरदी पड़ रही हो पर्वतको गुफाओंके पास तथा पेड़ आदिके नीचे भी गरमी मालूम होती है। यह गरमी भी मनुष्यके शरीरकी गरमीकी तरह किसी तैजसशरीरवाले जीवसे ही उत्पन्न हुई माननी चाहिए। जिस तरह गरमीके दिनों बाहरको गरमोके कारण शरीरके भीतरकी तैजसशरीररूपी अग्नि मन्द पड़ जाती है उसी तरह बाहरकी तीव्र गरमीके कारण नदीका जल भी ठण्डा हो जाता है। गरमीके दिनोंमें होनेवाली यह ठण्डक भी जीव हेतुक ही माननी चाहिए जैसे कि मनुष्यके शरीरके भीतरकी ठण्डक । इस तरह अनेक अनुमानोंसे जलमें जीवको सिद्धि की जाती है अतः जलको सजीव मानना युक्ति तथा अनुभवसे प्रसिद्ध है। ६१४८. रात्रिमें जुगुनू अपने शरीरके चमकदार परिणमनसे चमकता है, प्रकाश देता है। यह प्रकाश जीवकी शक्तिका प्रत्यक्ष फल है, इसी तरह आगके अंगार आदिमें भिन्न-भिन्न प्रकारकी प्रकाश-शक्तियां पायी जाती हैं, इनसे भी उनमें रहनेवाले जीवका अनुमान होता है; क्योंकि ये प्रकाश-शक्तियाँ जीवके संयोगके बिना नहीं हो सकतीं। जिस तरह बुखार आनेसे जीवित शरीरका अंगारकी तरह गरम हो जाना जीवके संयोगका एक खास चिह्न है उसी तरह अग्निकी गरमी भी जीवके संयोगके बिना नहीं हो सकती अतः वह भी अग्नि जीवका अनुमान करानेमें प्रधान हेतु है। क्या कभी मुरदेको भी बुखारका आना सुना गया है ? इस तरह अन्वय-व्यतिरेकसे अग्निकी गरमी ही अग्नि जीवोंका अनुमान कराती है। प्रयोग-आगके अंगार आदिमें पाया जानेवाला १. जलप्रक्षेपविध्यातास्वप्यग्ने-म.३ । २. -तलः स्पर्शः भ. २। ३. एवं लक्षण-भ.२।४.-पि विशिम. २.। ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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