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________________ २४० षड्दर्शनसमुच्चये [का. ४९. ६ १४६एव संभूय पातात्, मत्स्यवदिति । तथा शीतकाले भृशं शीते पतति नद्यादिष्वल्पेऽल्पो बही बहुबहुतरे च बहुतरो य ऊष्मा संवेद्यते स जीवहेतुक एव, अल्पबहुबहुतरमिलितमनुष्यशरीरेष्वल्पबहुबहुतरोष्मवत् । प्रयोगश्चायम्-शीतकाले जलेषूष्णस्पर्श उष्णस्पर्शवस्तुप्रभवः, उष्णस्पर्शत्वात्, मनुष्यशरीरोष्णस्पर्शवत् । न च जलेष्वयमुष्णस्पर्शः सहजः, 'अप्सु स्पर्शः शीत एव' इति वैशेषिकादिवचनात् । तथा शीतकाले शीते स्फीते निपतति प्रातस्तटाकादेः पश्चिमायां विशि स्थित्वा यदा तटाकादिकं विलोक्यते, तदा तज्जलान्निर्गतो वाष्पसंभारो दृश्यते, सोऽपि जीवहेतुक एव । प्रयोगस्त्वित्थम् - शीतकाले जलेषु वाष्प उष्णस्पर्शवस्तुप्रभवः, वाष्पत्वात्, शीतकाले शीतलजलसिक्तमनुष्यशरीरवाष्पवत् । प्रयोगद्वयेऽपि यदेवोष्णस्पर्शस्य वाष्पस्य च निमित्तमुष्णस्पर्श वस्तु, तदेव तैजसशरीरोपेतमात्माख्यं वस्तु प्रतिपत्तव्यम् । जलेष्वन्यस्योष्णस्पर्शवाष्पयोनिमित्तस्य वस्तुनोऽभावात् । ६१४६. न च शीतकाल उत्कुरुडिकावकरतलगतोष्णस्पर्शेन तन्मध्यनिर्गतवाष्पेण च प्रकृतबादलोंसे गिरनेवाली मछलियाँ । जिस प्रकार बरसातमें बादलोंमें ही सरदी, गरमी आदिके निमित्तसे मछलियां उत्पन्न होकर बरसती हैं उसी तरह जल भी बादलों के विकारसे उत्पन्न होकर बरसता है अतः सचेतन है। ठण्डके दिनोंमें जब खूब सरदी पड़ती है तब छोटी तलेया या बावड़ीके थोड़े पानीमें थोड़ी गरमी, तालाबके पानीमें अधिक गरमी तथा नदी आदिके पानी में तो और भी अधिक गरमी देखी जाती है। स्वभावसे ठण्डे पानीकी यह गरमी जीवके निमित्तसे उत्पन्न होती है। जैसे थोड़े, बहुत, या बहुत अधिक मनुष्योंको भीड़ होनेपर मनुष्योंके अनुपातके अनुसार थोड़ी, बहुत या बहुत अधिक गर्मी जीव हेतुक ही हुआ करती है। प्रयोग-ठण्डके दिनों में नदी आदिके पानीका गरम रहना गरम वस्तुके सम्पर्कसे ही सम्भव है क्योंकि वह स्वभावसे ठण्डे पदार्थमें आयी हुई गरमी है । जैसे कि मनुष्योंकी भीड़ होनेसे कमरेमें होनेवाली गरमी। यह गरमी जलका स्वाभाविक धर्म नहीं हो सकती क्योंकि वैशेषिक आदिने स्वयं ही जलको स्वभावसे ठण्डा माना है। कहा भी है-"जलमें ठण्डा ही स्पर्श है"। इसी तरह जब खूब जमकर ठण्ड पड़ रही हो, कुहरा आकाशको आच्छादित कर रहा हो तब टहलते हुए प्रातःकाल नदी आदिके पच्छिम किनारेपर पहुंचिए। वहांसे जब आप नदो आदिकी शोभा देखेंगे तो मालूम होगा कि उसमें-से भाऐं उसी तरह निकल रही हैं जैसे किसी चूल्हेपर रखी हुई बटलोईसे । यह भाप भी जीवहेतुक ही है। प्रयोग-शीतकाल में नदी आदिसे निकलनेवाली भाप गरम वस्तुके सम्पर्कसे उत्पन्न होती है, क्योंकि वह भाप है । जिस प्रकार ठण्डके दिनोंमें किसी मनुष्यको ठण्डे पानीसे ही स्नान करानेपर उसके शरीरसे निकलनेवाली भाप उसके गरम शरीरके सम्बन्धसे हो उत्पन्न होती है उसी तरह नदी आदिको भापमें भी कोईन-कोई गरम चीजका सम्बन्ध अवश्य ही है। उक्त दोनों अनुमानोंमें जलकी गरमी तथा उससे निकलनेवाली भापमें उष्ण स्पर्शवाली वस्तुके सम्बन्धको कारण बताया गया है। यह उष्ण स्पर्शवाली वस्तु यदि कोई हो सकती है तो वह है पानीमें रहनेवाला तैजस शरीरसे युक्त आत्मा। क्योंकि जल आदिमें गरमी लानेवाला या भाप निकलने में कारण अन्य कोई पदार्थ हो ही नहीं सकता। अतः इन अनुमानोंसे पानीको सजीवता बड़ी सरलतासे समझमें आ जाती है। $१४६. शंका-कूड़े-कचरेके घरेसे भी ठण्डके दिनोंमें भाप निकलती हुई दिखाई देतो है तथा उस घूरेके भीतर गरमी भी काफी रहती है, परन्तु वहाँ कोई भी उष्णस्पर्शवाली वस्तु नहीं है जिसके निमित्तसे गरमी या भापका उत्पन्न होना समझमें आये। इसी तरह जलकी गरमी और १. -श्चात्र शीत -म. २ । २. सर्शवत्त्वात् म.३। ३. -"अप्सु शीतता" -वैशे. सू. ॥२।५ । ४. -स्य निमि-म. २। ५. ध्यवाष्पेन भ.३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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