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२३८ षड्दर्शनसमुच्चये
[का०४२.६१४३समानजातीयाङ्करोत्पत्तिमत्वम् अर्थो मांसाङ्करस्येव चेतेनाचिह्नमस्त्येव । अव्यक्तचेतनानां हि संभावितैकचेतनालिङ्गानां वनस्पतीनामिव चेतनाभ्युपगन्तव्या। वनस्पतेश्च चैतन्यं विशिष्टतुफल. प्रदत्वेन स्पष्टमेव, साधयिष्यते च । ततोऽव्यक्तोपयोगादिलक्षणसद्भावात्सचित्ता पृथिवीति स्थितम् ।
६१४३. 'ननु च विद्रुमपाषाणादिपृथिव्याः कठिनपुद्गलात्मिकायाः कथं सचेतनत्वमिति चेत्, नैवम्, उच्यते-यथा अस्थि शरीरानुगतं सचेतनं कठिनं च दृष्टम् एवं जीवानुगतं पृथिवी. शरीरमपीति ।
१४४. अथवा पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयो जीवशरीराणि छेद्यभेदोत्क्षेप्यभोग्यप्रेयरसनीयस्पश्यद्रव्यत्वात, सास्नाविषाणादिसंघातवत नहि पथिव्यादीनां छेद्यत्वादि दृष्टमपह्नोतुं शक्यम् । न च पृथिव्यादीनां जीवशरोरत्वमनिष्टं साध्यते, सर्वस्य पुद्गलद्रव्यस्य द्रव्यशरीरत्वाभ्युपगमात् । जीवसहितत्वासहितत्वं च विशेषः अशस्त्रोपहतं पृथिव्यादिकं कदाचित्सचेतनं संघातत्वात्, पाणि.
प्रमाण हैं उसी तरह पृथिवी आदिमें भी स्वस्वजातीय नये अंकुर उत्पन्न करनेकी शक्ति पायी जाती है जिसके कारण नमककी खदानमें नमक निकाले जानेपर भी वह बढ़ता जाता है। समुद्र में मूंगा उत्पन्न होता है, उसमें नित नये-नये अंकुर उत्पन्न होते हैं। आप किसी पत्थरकी खानको ध्यानसे देखिए उसमें पत्थरके अंकुर निकलते ही हैं और पत्थर बढ़ता ही जाता है। इस तरह अपने सजातीय अंकुरोंको उत्पत्ति करना ही सबसे बड़ा प्रमाण है जो पथिवी आदिको सजीव सिद्ध करता है। जिस प्रकार हरी-भरी वनस्पतियोंमें कोंपलें, फूल-फल आदि निकलकर अपनी सजीवताको अपने आप कहते हैं उसी तरह जिनमें चेतनाके चिह्न प्रकट नहीं हैं ऐसे पृथिवी आदिमें यदि चेतनाका सबसे प्रबल प्रमाण सजातीय अंकुरकी उत्पत्ति करना मिलता है तो उन्हें चेतन मानने में क्या अड़चन है ? यदि वे सजीव नहीं हैं तो उनमें अंकुर कहाँसे निकलते हैं, वे बढ़ते क्यों हैं ? आमका गरमियोंमें फलना तथा अमुक-अमुक ऋतुओंमें अमुक वनस्पतियोंका नियमसे फूलनाफलना उनकी सजीवताका सजीव प्रमाण है। यद्यपि वनस्पतिकी सजीवता स्पष्ट है फिर भी आगे उसे अच्छी तरह सिद्ध करेंगे । अतएव अव्यक्त चैतन्य होनेसे पृथिवी सचित्त है यह सिद्ध होता है।
१४३. शंका-मूंगा या पत्थर आदि तो अत्यन्त कठिन हैं, वे तो पुद्गलात्मक हैं उन्हें सजीव कैसे कहा जा सकता है ?
समाधान-कठिन होनेसे ही किसीको निर्जीव नहीं कह सकते, देखो अपने जीवित शरीरका ही हाड़ पत्थरसे कम कठिन नहीं है फिर भी वह सजीव है टूटनेपर बढ़ता है इसी तरह बढ़नेवाली कठिन पत्थर आदि जीवित पृथिवीको भी सचेतन मानना चाहिए।
६१४४. पृथिवी, जल, आग, हवा तथा पेड़ आदि जोवके शरीर हैं क्योंकि ये छेदे जाते हैं, भेदे जाते हैं, इन्हें फेंक सकते हैं, ये प्राणियोंके द्वारा भोगे जाते हैं, इन्हें सूंघते हैं, चाटते हैं, छूते हैं आदि । जैसे गायके सींग या उसके गलेमें लटकनेवाला चमड़ा आदि छेदने-भेदने-छूने आदिके योग्य होनेसे जीवित प्राणीका शरीर है उसी तरह पृथिवी आदि भी। पृथिवी आदिका छेदा जाना, भेदा जाना आदि तो प्रत्यक्षसे ही प्रतीत होते हैं। बड़े-बड़े पहाड़ोंको काटकर ही पत्थर लाया जाता है और बड़ी-बड़ी इमारतें बनायी जाती हैं। इस प्रत्यक्ष वस्तुका लोप नहीं किया जा सकता। पृथिवी आदिको जीवका शरीर मानना अनिष्ट नहीं है, क्योंकि संसारके समस्त पुद्गल द्रव्य शरीर होनेको योग्यता रखते हैं। वे द्रव्यशरीर तो हैं ही। हाँ कुछ पुद्गल जीव सहित होकर सजीव शरीर रूप होते हैं तथा कुछ निर्जीव । जिस पत्थरको खानिमें अभी तक
१. त न विद्रुमतस्येव भ. २ । २. ननु विद्रु -भ. २ । ३. -उनुत्वात्कठि-भ. २। ४. -द्रव्यस्य शरीर-भ, २, क.।
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