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________________ -का०४९. ६१४२] जैनमतम् । २३७ 'नित्यस्यैकस्य व्यापिनः सर्वत्राप्यविशेषादित्यत्र बहुवक्तव्यम् तत्त नोच्यते, ग्रन्थगौरवभयात् । ततश्चात्मनः पदार्थपरिच्छेदकत्वमङ्गोकुर्वाणैश्चैतन्यस्वरूपताप्यस्य गले पाविकान्यायेन प्रतिपत्तव्येति स्थितं चैतन्यलक्षणो जीव इति। ६१४०. जीवश्च पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियभेदान्नवविधः। ६१४१. ननु भवतु जीवलक्षणोपेतत्वावीन्द्रियादीनां जीवत्वं, पृथिव्यादीनां तु जीवत्वं कथं श्रद्धेयं व्यक्ततल्लिङ्गस्यानुपलब्धेरिति चेत् ? सत्यम्; यद्यपि तेषु व्यक्तं जीवलिङ्ग नोपलभ्यते, तथाप्यव्यक्तं तत्समुपलभ्यत एव । यथा हत्पूरव्यतिमिश्रमदिरापानादिभिर्मूच्छितानां व्यक्तलिङ्गाभावेऽपि सजीवत्वमव्यक्तलिङ्गळवह्रियते, एवं पृथिव्यादीनामपि सजीवत्वं व्यवहरणीयम् । १४२. ननु मूच्छितेषूच्छ्वासादिकमव्यक्तं चेतनालिङ्गमस्ति, न पुनः पृथिव्यादिषु तथाविधं किचिच्चेतनालिङ्गमस्ति; नैतदेवम् पृथिवीकाये तावत्स्वस्वाकारावस्थितानां लवणविद्रुमोपलादीनां जाय । इस विषयको बहुत कुछ विस्तारसे कहमा था परन्तु ग्रन्थ के विस्तारका डर लगा है अतः इतना ही पर्याप्त है। इस तरह यदि आत्माको पदार्थोंका जाननेवाला मानना है तो उसे ज्ञानस्वभाववाला मानना ही होगा। पदार्थोंके जाननेवाले आत्माको 'गले पड़े बजाये सिद्ध के अनुसार ज्ञानस्वभावताका ढोल बजाना ही होगा। बिना ज्ञानस्वभावके वह पदार्थों को जाननेवाला नहीं बन सकेगा। इतने विवेचनसे यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि-आत्मा स्वतन्त्र पदार्थ है तथा वह चैतन्यस्वभाववाला है। ६१४०. संसारी आत्माएं एकेन्द्रिय-एक स्पर्शन इन्द्रियवाली, द्वीन्द्रिय-स्पर्शन और जीभवाली जैसे, त्रीन्द्रिय-स्पर्शन, जीभ और नाकवाली जैसे, चतुरिन्द्रिय-स्पर्शन, जीभ, नाक और आंखोंवाली जैसे, तथा पंचेन्द्रिय-स्पर्शन, जीभ, नाक, आंख और कानवाली जैसे, इस तरह स्थूल रूपसे पांच भागोंमें बांटी जा सकती हैं। और एक स्पर्शन इन्द्रियवालो आत्माएं पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति रूप होती हैं। इस तरह पृथिवी आदि पांच तथा द्वीन्द्रिय आदि चार, सब मिलाकर संसारी आत्माओंके नव भेद हो जाते हैं। - ६१४१. शंका-चलते-फिरते कीड़े-मकोड़े आदिमें तो आत्माकी बात कुछ समझमें आती है पर इन अजीव जड़ पृथिवी आदिको भी जीव कहना एक अजीब ही बात है। इनमें कोई भी ऐसे स्पष्ट चिह्न नहीं दिखाई देते जिनसे इनमें भी जीव माना जा सके। - समाधान--आपका कहना ठीक है कि-पृथिवी आदिमें जीव होनेके लक्षण स्पष्ट नहीं मालूम होते; पर अस्पष्ट रूपसे इनमें भी जीवके प्रायः सभी चिह्न मौजूद हैं जो इनको भी जीव सिद्ध करते हैं। लक्षण-चिह्नोंके अस्पष्ट होनेसे जीवका अभाव तो किया ही नहीं जा सकता। देखो, जिन पुराने पक्के शराबियोंने धतूरेसे मिली हुई शराब जमकर पी ली है, उन बुरी तरह बेहोश पड़े हुए शराबियोंमें भी जीवके ज्ञानादि चिह्न प्रकट नहीं दिखाई देते फिर भी अस्पष्ट चिह्नोंसे उन्हें सजीव तो कहते ही हैं। उसी तरह पृथिवी आदिको भी अस्पष्ट लिंगोंके बलपर सजीव कहना ही चाहिए। १४२. शंका-बेहोश शराबियोंकी श्वास चलती है, उनका शरीर भी गरम रहता है, अतः उनमें सजीवताके चिह्न, अस्पष्ट रूपमें ही सही, पाये तो जाते हैं, पर पृथिवी आदिमें न तो श्वास ही चलती है और न उनमें कुछ इस प्रकारकी हरकतें ही पायी जाती हैं जिन्हें आत्माके अस्पष्ट चिह्न भी कह सकें । अतः उन्हें कैसे सजीव मान सकते हैं ? समाधान -आपकी शंका ठीक नहीं है। देखो, जिस प्रकार हमारे शरीर में गुदाके आसपास होनेवाले बवासीरके मस्से नये-नये मस्सोंको उत्पन्न करके शरीरको सजीवताके ज्वलन्त १. नित्यैकस्य म. २ । २. -लक्षणा जीवा इति भ. २ । ३. तथापि वक्तव्यं तत्स-म. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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