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षड्दर्शनसमुच्चये
[का. ४९. ६ १३८त्वात्, यः स्वकर्मफलभोक्ता स कापि दृष्टः यथा कृषीबलः। तथा सांख्यकल्पितः पुरुषो वस्तु न भवति, अकर्तृकत्वात्, खपुष्पवत् ।
१३८. किं चात्मा भोक्ताङ्गीक्रियते स च भुजिक्रियां करोति, न वा। यदि करोति तवापराभिः क्रियाभिः किमपराद्धम् ? अथ भुजिक्रियामपि न करोति तहि कथं भोक्तेति चिन्त्यम् । प्रयोगश्चात्र-संसार्यात्मा भोक्ता न भवति, अकत्तृ कत्वात्, मुक्तात्मवत् । अकर्तृभोक्तृत्वाभ्युपगमे च कृतनाशाकृताभ्यागमादिदोषप्रसङ्गः। प्रकृत्या कृतं कर्म, न च तस्याः फलेनाभिसंबन्ध इति कृतनाशः। आत्मना , तन्न कृतम्, अथ च तत्फलेनाभिसंबन्ध इत्यकृतागम इत्यात्मनः कर्तृत्वमङ्गीकर्तव्यम् ।
१३९. तथा जडस्वरूपत्वमप्यात्मनोन घटते, तदबाधकानुमानस.द्धावात। तथाहि-अनपयोगस्वभाव आत्मा नार्थपरिच्छेदकर्ता, अचेतनत्वात् गगनवत् । अथ चेतनासमवायात परिच्छिनत्तीति चेत्; तहि यथात्मनश्चेतनासमवायात ज्ञातृत्वं तथा घटस्यापि ज्ञातृत्वप्रसङ्गः, समवायस्य ही उपचारसे भोक्ता बनता है। उनकी यह मान्यता भी प्रमाणशून्य है । आत्मा वस्तुतः कर्मोंका कर्ता है, क्योंकि वह उन कर्मोंके फलको भोगता है । जो अपने कर्मों के फलको भोगता है वह कर्ता भी होता है जैसे अपनी लगायी हुए खेतीको काटकर भोगनेवाला किसान । यदि सांख्य पुरुषको कर्ता नहीं मानते; तो उनका पुरुष वस्तु ही नहीं बन सकेगा। सांख्यके द्वारा माना गया पुरुष वस्तुसत् नहीं है क्योंकि वह कोई कार्य नहीं करता जैसे कि आकाशका फूल ।
$१३८. आप आत्माको भोक्ता मानते हैं। भोक्ताका अर्थ है भोग क्रियाको करनेवाला कर्ता । अब आप ही बताइए कि आपका पुरुष भोग क्रियाको करता है या नहीं ? यदि भोग क्रियाको करके भोक्ता बनता है तो अन्य क्रियाओंने क्या अपराध किया जिससे उन्हें पुरुष नहीं करता। जिस प्रकार भोग क्रिया करता है उसी प्रकार अन्य क्रियाओंको करके उसे सच्चा कर्ता बनना चाहिए। यदि वह निठल्ला पुरुष भोग क्रिया भी नहीं करता; तब उसे 'भोक्ता' कैसे कह सकते हैं ? जो भोग क्रिया करता है वही भोक्ता कहलाता है। प्रयोग-संसारी आत्मा भोक्ता नहीं हो सकता क्योंकि वह भोग क्रिया भी नहीं करता, जैसे कि मुक्त जीव । अकर्ताको भोक्ता मानने में तो 'करे कोई और भोगे कोई' वाली बात हुई। इसमें तो कृतनाश तथा अकृताभ्यागम नामके भीषण दोष होंगे। देखो, बेचारी प्रकृतिने तो कार्य किया सो उसे फल नहीं मिला वह भोगनेवाली नहीं हुई। यह तो स्पष्ट ही कृतनाश है। आत्माने कुछ भी कार्य नहीं किया, पर उसे फल मिल रहा है। यह अकृतकी प्राप्ति है। 'करे कोई और भोगे कोई' इस दूषणसे बचनेके लिए भोगनेवाले आत्माको कर्ता मानना ही चाहिए। प्रकृति तो अचेतन है अतः उसे भोगनेवाली मानना तो उचित नहीं है। यदि प्रकृति ही भोगनेवाली बन जाय तब पुरुष तो बिलकुल ही निरर्थक हो जायेगा।
६१३९. आत्माको जड़-ज्ञानशून्य कहना उचित नहीं है। क्योंकि आत्माको ज्ञानी सिद्ध करनेवाला अनुमान मौजूद है, जैसे-ज्ञानशून्य आत्मा पदार्थोंको नहीं जान सकता; क्योंकि वह आकाशकी तरह अचेतन है। चेतनाके समवायसे आत्माको चेतन-ज्ञानवाला मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि समवाय सम्बन्ध नित्य व्यापी तथा एक है, अतः जिस प्रकार अचेतन आत्मा चेतनाके समवायसे चेतन बन जाता है और संसारके पदार्थोंको जाननेवाला ज्ञाता कहलाता है उसी तरह अचेतन घट भी चेतनाके समवायसे चेतन बनकर ज्ञाता कहलाने लगे। 'आत्मामें ही ज्ञानका समवाय होता है घटादिमें नहीं' यह नियम तब ही बन सकता है यदि आत्माको ज्ञानस्वभाव माना
१. यदा भ..। २. "भोक्तात्मा चेत्स एवास्तु कर्ता तदविरोधतः। विरोधे तु तयोर्भोक्तः स्याद्भुजौ कत्तु ता कथम् ॥" -आप्तपं. ३लो, ०३। ३. -कृतागमा-भ. २ । ४. चैतन्न म. ।। ५. कृतं तस्य च-म, २।
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