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________________ -का० ४९. ६ १३७ ] जैनमतम् । २३५ 'स्तन्याभिलाषः पूर्वाभिलाषपूर्वकः, अभिलाषत्वात्, द्वितीयदिनाद्यस्तनाभिलाषवत् । तविदमनुमानमाद्यस्तनाभिलाषस्याभिलाषान्तरपूर्वकत्वमनुमापयदर्थापत्त्या परलोकगामिनं जीवमाक्षिपति, तज्जन्मन्यभिलाषान्तराभावादिति ६.१३६ तथा कूटस्थनित्यताप्यात्मनोन घटते, यतो यथाविधः पूर्वदशायामात्मा तथाविध एव चेज्ञानोत्पत्तिसमयेऽपि भवेत्, तदा प्रागिव कथमेष पदार्थपरिच्छेदकः स्यात् ? प्रतिनियतस्वरूपाऽप्रच्युतिरूपत्वात् कौटस्थ्यस्य । पदार्थपरिच्छेदे तु प्रागप्रमातुः प्रमातृरूपतया परिणामात् कुतः कौटस्थ्यमिति ? १३७. तथा सांख्याभिमतकर्तृत्वमप्ययुक्तम् । तथाहि-कर्ता आत्मा, स्वकर्मफलभोक्त है। इस देहको छोड़कर परलोकमें दूसरी देह धारण करता है, परलोकको सिद्धि इस अनुमानसे की जाती है-तत्काल उत्पन्न हुए नवजात शिशुको माँके दूध पीनेकी जो इच्छा होती है, वह पहले पिये गये दूधकी इच्छापूर्वक होती है, क्योंकि यह इच्छा है। जिस प्रकार उसी बालकको दूसरे दिन होनेवाली दूध पीनेकी इच्छा पहले दिनकी इच्छासे उत्पन्न हुई है उसी तरह नवजात शिशुकी सर्वप्रथम इच्छाकी उत्पत्ति भी उससे पहलेको इच्छासे माननी चाहिए। इस तरह आजकी दुग्ध ी इच्छाकी उत्पत्ति पूर्व इच्छा पूर्वक देखकर सबसे पहले होनेवाली नवशिशको इच्छाको भी अन्य इच्छापूर्वक ही मानना चाहिए। अब विचार कीजिए कि-वह लड़का नौ महीने तो मांक पेटमें अचेतन जैसा पड़ा रहा है उस समय तो उसे दूध आदि पीनेकी इच्छा हो ही नहीं सकती। अतः गर्भ में आनेसे पहलेकी पूर्वजन्मवाली ही इच्छा नवशिशुको आज दूध पीनेकी इच्छा उत्पन्न कर रही है यह मानना ही सयुक्तिक है। क्योंकि उस लड़केको उस जन्ममें तो इच्छाका होना सम्भव ही नहीं है, गर्भ में उस अचेतनके समान निश्चेष्ट लड़के को क्या इच्छा हो सकती है ? इच्छा तो पदार्थोंका देखना उनकी सुखसाधनता आदिका स्मरण करके ही होती है सो. गर्भकूपमें पड़े हुए उस बिचारेको पदार्थोंका देखना या स्मरण आदि कभी भी सम्भव नहीं हैं। अतः यह मानना होगा कि वह पूर्वजन्मसे आया है और पूर्वजन्ममें पिये गये दूधका स्मरण कर उसे आज भो दूध पीने की इच्छा हो रही है। उसका आज बिना सिखाये-पढ़ाये दूध पीना उसके पूर्वजन्मके अभ्यासका फल है। १३६. आत्माको कूटस्थ नित्य-जैसाका तैसा, अपरिवर्तनशील, सदा एक रूपमें रहनेवाला मानना भी युक्ति तथा अनुभवके विरुद्ध है, क्योंकि यदि आत्मा जैसा पहले था वैसा ही सदा रहता हो, उसमें कभी भी कुछ भी परिवर्तन न होता हो, तो ज्ञानके उत्पन्न होनेपर भी वह पहलेकी ही तरह मूर्ख ही बना रहेगा-उसमें अपनी मूर्खताको छोड़कर विद्वत्ता पानेकी गुंजाइश तो आपने रखी ही नहीं, अतः वह पदार्थोंका परिज्ञान कैसे कर सकेगा? यदि आत्मा ज्ञानके उत्पन्न होनेपर अपनी पहलेको अज्ञानदशा मूर्खता छोड़कर पदार्थोके स्वरूपको यथावत् जानकर जाननेवाला बन जाता है, तब वह कूटस्थ नित्य कहाँ रहा ? उसमें तो मूर्खसे ज्ञाता बननेके रूप में बड़ा भारी परिवर्तन हो गया। कूटस्थ नित्यमें-से तो न कोई पहलेका स्वभाव नष्ट होता है और न उसमें किसी नये स्वभावकी उत्पत्ति ही होती है वह तो सदा एक-सा रहता है। वह यदि मूर्ख है तो मूर्ख और विद्वान् है तो विद्वान ही रहेगा। वह मूर्खसे विद्वान् हरगिज नहीं बन सकता। १३७. सांख्य आत्माको कर्ता नहीं मानते। उनके मतसे यह करना-धरना प्रकृतिका काम है पुरुष तो आराम करने के लिए-भोगनेके लिए ही है, सो भी उस बिचारी प्रकृतिपर दया करके १.-स्तनाभि-म, १, २,प.१ । २.-नो नो भ.२। ३.-मये भवेत् म.२। ४. कूटस्यस्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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