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________________ २३४ षड्दर्शनसमुच्चयै [का० ४९. ६१३२प्रतिजानीमहे यद्यत्र निषिध्यते तत्तत्रैवास्तीति येन व्यभिचारः स्यात्, एवं सत एव जीवस्य यत्र कापि निषेधः 'स्यान्न पुनः सर्वत्रेति । 5 १३२. तथास्ति देहेन्द्रियातिरिक्त आत्मा इन्द्रियोपरमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणात्, पञ्चवातायनोपलब्धार्थानुस्मर्तृदेवदत्तवत् इति सिद्धमनुमानग्राह्य आत्मेति।। $ १३३. अनुमानग्राह्यत्वे हि सिद्धे तदन्तर्भूतत्वेनागमोपमानार्थापत्ति ग्राह्यतापि सिद्धा। ६१३४. किंच 'प्रमाणपञ्चकाभावेन' इत्यादि यदप्यवादि, तदपि मदिराप्रमादिविलसितसोदरमः यतो हिमवत्पलपरिमाणादीनां पिशाचादीनां च प्रमाणपञ्चकाभावेऽपि विद्यमानत्वादिति, अतो यत्र प्रमाणपञ्चकाभावस्तदसदेवेत्यनैकान्तिकम् इति सिद्धःप्रत्यक्षादिप्रमाणग्राह्य आत्मा। ६१३५. स च विवृत्तिमान् परलोकयायो। तत्र चानुमानमिदम्-तैदहर्जातबालकस्याद्यकि-'जिसका जहाँ निषेध किया जाता है वह वहीं मौजूद है' यदि हम ऐसा नियम करते तो अवश्य ही दूषण आता। इसीलिए सामान्यरूपसे कहीं-न-कहीं विद्यमान जीवका किसी विशेष शरीर आदिमें निषेध किया जाता है सब जगह नहीं। इस तरह जीवका निषेध ही स्वयं जीवकी सत्ता सिद्ध करता है। १३२. १०. शरीर और इन्द्रिय आदिसे आत्मा भिन्न है; क्योंकि इन्द्रियोंके व्यापार रुक जानेपर या अमुक इन्द्रिय आंख आदिके फूट जानेपर भी उन इन्द्रियोंके द्वारा जाने गये पदार्थों का स्मरण होता है। जिस प्रकार देवदत्तको मकानको पांच खिड़कियोंसे देखे गये पदार्थों का खिड़कियां बन्द कर देनेपर भी बराबर स्मरण होता है उसी तरह ज्ञानके इन इन्द्रियरूपी खिड़कियों के बन्द हो जानेपर भी इनके द्वारा देखे गये पदार्थों का स्मरण करनेवाला कोई आत्मा अवश्य है जो इन खिड़कियोंसे अपनी भिन्न सत्ता रखता है। ६१३३. इस प्रकार पूर्वोक्त अनुमानोंसे जब आत्माकी सिद्धि भले प्रकार कर दी गयी तब आगम, उपमान और अर्थापत्तिके द्वारा भी आत्माकी सिद्धि मान ही लेनी चाहिए। क्योंकि आगम आदि एक तरहसे अनुमानके ही प्रकार हैं। वैशेषिक और बौद्ध इन्हें अनुमानमें ही शामिल कर लेते हैं। ६१३४. आपने पहले आत्माको पांच प्रमाणोंका अविषय कहकर अभाव प्रमाणका ग्राह्य बताया था। वह तो केवल किसी पुराने मदकचीकी पिनकके समान ही मालम होता है। देखो, हिमालयका कितने रत्ती वजन है, तथा पिशाच आदिका कैसा आकार है, इन्हें हमारे पांचों ही प्रमाण नहीं जानते फिर भी इनका अभाव तो नहीं कहा जा सकता। हिमालयका वजन रत्तियोंके हिसाबमें भी आखिर कुछ-न-कुछ तो होगा ही, पिशाच आदिका भी आकार किसी-न-किसी प्रकारका होगा ही। इसलिए पाँच प्रमाणोंको अप्रवृत्ति होनेसे ही किसी वस्तुका अभाव नहीं माना जा सकता। प्रमाणपंचकका अभाव व्यभिचारी होने के कारण वस्तुके अभावको सिद्ध करने में किसी भी तरह समर्थ नहीं हो सकता। इस तरह आत्माकी सत्ता प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाणोंसे निर्बाध रूपसे सिद्ध हो जाती है। 5 १३५. यह आत्मा परिवर्तनशील है, यह अनेकों मनुष्यों पशु आदिकी योनियोंमें जाता १. न तु सर्वत्र भ. २। २. "नेन्द्रियाणां करणत्वात् उपहतेषु विषयासान्निध्ये चानुस्मृतिदर्शनात् ।" -प्रश. भा. पृ. ६९ । प्रश व्यो. प. ३९५। प्रमेयक. पृ. ११४ । "नेन्द्रियार्थयोः तद्विनाशेऽपि ज्ञानावस्थानात् ।"-न्यायसू. ३।२।।। ३. -त्वे सि आ., क.। ४. हिमवदुत्पल-आ., का. । ५. "पूर्वानुभूतस्मृत्यनुबन्धाज्जातस्य हर्षभयशोकसंप्रतिपत्तेः।"-न्यायसू.३।१।१९ । न्यायमं, पृ. ४७०। "नास्मृतेऽभिलाषोऽस्ति न विना सापि दर्शनात् । तद्धि जन्मान्तरान्नायं जातमात्रेऽपि लक्ष्यते ॥" -प्रमेयक. पृ. ११९ । तत्त्वसं.पं. पृ. ५३२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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