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-का ४९.६१३१] जेनमतम् ।
२३३ न तु सर्वथेश्वरता, स्वशिष्यादीश्वरतायास्तवापि विद्यमानत्वात् । तथा प्रतिषेधस्यापि पञ्चसंख्याविशिष्टत्वमविद्यमानमेव निवार्यते न तु सर्वथा प्रतिषेधस्याभावेचतुःसंख्याविशिष्टस्य सद्भावात् ।
१३०. ननु सर्वमप्यसंबद्धमिदम् । तथाहि-मत्रिलोकेश्वरत्वं तावदसदेव निषिध्यते, प्रतिषेधस्यापि पञ्चसंख्याविशिष्टत्वमप्यविद्यमानमेव निवार्यते। तथा संयोगसमवायसामान्यविशेषाणामपि गृहदेवदत्तखरविषाणादिष्वसतामेव प्रतिषेध इति । अतो यन्निषिध्यते तदस्त्येवेत्येतत्कथं न प्लवत इति।
१३१. अत्रोच्यते-देववत्तादीनां संयोगादयो गृहादिष्वेवासन्तो निषिध्यन्ते । अर्थान्तरे तु तेषां ते सन्त्येव । तथाहि-गृहेणैव सह देवदत्तस्य संयोगो न विद्यते, अर्थान्तरेण त्वारामादिना वर्तत एव । गृहस्यापि देवदत्तेन सह संयोगो नास्ति, खट्वादिना तु विद्यत एव । एवं विषाणस्यापि खर एव समवायः नास्ति, गवादावस्त्येव । सामान्यमपि द्वितीयचन्द्राभावाच्चन्द्र एव नास्ति, अर्थान्तरे तु घटादावस्त्येव । घटप्रमाणत्वमपि मुक्तासु नास्ति, अन्यत्र विद्यत एव । त्रिलोकेश्वरतापि भवत एव नास्ति, तीर्थकरादावस्त्येव । पञ्चसंख्याविशिष्टत्वमपि प्रतिषेधप्रकारेषु नास्ति, अनुत्तरविमानादावस्त्येवेत्यनया विवक्षया ब्रूमः यन्निषिध्यते तत्सामान्येन विद्यत एव । न त्वेवं है, साधारण प्रभुताका नहीं। आपकी प्रभुता अपने शिष्योंपर है इसको कोई नहीं मेटता। इसी . प्रकार प्रतिषेधके प्रकारोंमें पांचवीं संख्याका निषेध किया जाता है, प्रतिषेधके प्रकारोंका अभाव
नहीं किया जा रहा है । प्रतिषेधके चार प्रकार तो हैं ही, पांचवां प्रकार उनमें नहीं है इतना ही निषेधका मतलब है। प्रतिषेध भी है तथा पांचवीं संख्या भी, किन्तु प्रतिषेध और पांचवीं संख्याएँ दोनोंका आपसमें विशेषणविशेष्य भाव नहीं है।
६१३०. शंका-आपकी उपरोक्त सभी बातें असंगत तथा प्रमाणशून्य हैं। देखो, मेरी त्रिलोकेश्वरताका संसारमें कहीं सद्भाव नहीं है वह बिलकुल असत् ही है। प्रतिषेधमें भी पांचवां प्रकार कहीं भी नहीं है वह भी सर्वथा असत् ही है। अतः जब इन असत् पदार्थों का निषेध किया जा रहा है तब विद्यमान पदार्थोंके ही निषेधका नियम कहाँ रहा ? इसी प्रकार घर और देवदत्तका संयोग, खर और विषाणका समवाय, चन्द्रमाकी अनेकता तथा मोतीमें घटप्रमाणता नहीं है, बिलकुल असत् ही है फिर भी उनका निषेध किया ही जाता है । इसलिए 'जिसका निषेध होता है वह विद्यमान होता ही है यह नियम टूट रहा है । इसे दूषित क्यों न माना जाय ?
१३१. समाधान-यह ठीक है कि देवदत्त आदिके संयोग आदि घर आदिसे नहीं हैं, फिर भी उनका निषेध हो जाता है । परन्तु दूसरे पदार्थों के साथ तो हैं ही वे सर्वथा असत् तो नहीं हैं। देखो देवदत्तका संयोग घरसे नहीं है तो न सही, पर बगीचे आदिसे तो है। घरसे संयोग न सही खटियासे तो है। देवदत्त बाहर खाटपर बैठा है या बगीचे में बैठा है। उस समय 'देवदत्त घरमें नहीं है' यह प्रयोग किया जाता है, इसी तरह सींगका गधेमें समवाय नहीं है तो न हो, पर गाय आदिमें तो है ही। दूसरा चन्द्र न होने के कारण इस चन्द्रमामें समानता-अनेकता भले ही न हो, पर घड़े आदि पदार्थों में अनेकता तथा समानता पायी हो जाती है। मोतीमें घटके बराबर माप नहीं पाया जाता तो न सही, पर-कद्दू आदि फलोंमें तो पाया ही जाता है। तीन लोकोंका प्रभुत्व आपमें नहीं हैं पर तीर्थंकर आदिमें तो है ही। प्रतिषेधके प्रकारोंमें पांचवीं संख्या न पायी जावे तो न सही परन्तु स्वर्गोंके विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि नामके अनुत्तर विमानोंमें तो पायी हो जाती है। इसी अभिप्रायसे हमने कहा था कि-'जिसका निषेध किया जाता है वह सामान्य रूपसे कहीं-न-कहीं विद्यमान रहता ही है' हम यह तो नहीं कहते
१. सर्वेष्वरता म.२। २.-भावचतुः आ.। ३.-न्तरेण तु भ. २। ४.-चन्द्राभावश्चन्द्र म, । ५. मुक्तास्वेव नास्ति म.२। ६. अन्यत्र पाषाणादिष्वस्त्येव भ.२।
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