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________________ २३२ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ४९.६१२८विशेष-लक्षणं चतुष्टयमेव निषिध्यते, न तु सर्वथा तदभावः प्रतिपाद्यते । यथा नास्ति गृहे देवदत्त इत्यादिषु गृहदेवदत्तादीनां सतामेव संयोगमात्रं निषिध्यते, न तु तेषां सर्वथैवास्तित्वमपाक्रियते । तथा नास्ति खरविषाणमित्यादिषु खरविषाणादीनां सतामेव समवायमानं निराक्रियते । तथा नास्त्यन्यश्चन्द्रमा इत्यादिषु विद्यमानस्यैव चन्द्रमसोऽन्यचन्द्रनिषेधाच्चन्द्र सामान्यमानं निषिध्यते, न तु सर्वथा चन्द्राभावः प्रतिपाद्यते। तथा न सन्ति घटप्रमाणानि मुक्ताफलानीत्यादिषु घटप्रमाणतामात्ररूपो विशेषो मुक्ताफलानां निषिध्यते, न तु तदभावः ख्याप्यत इति । एवं नास्त्यात्मेत्यत्रापि विद्यमानस्यैवात्मनो यत्र वचन येन केनचित्सह संयोगमात्रमेव त्वया निषेद्धव्यं, "यथा नास्त्यात्मास्मिन् वपुषोत्यादि, न तु सर्वथात्मनः सत्त्वमिति । ११२८. अत्राह कश्चित् -ननु यदि यन्निषिध्यते तदस्ति, तर्हि मम त्रिलोकेश्वरताप्यस्तु, युष्मदादिभिनिषिध्यमानत्वात् । तथा चतुर्णा संयोगादिप्रतिषेधानां पञ्चमोऽपि प्रतिषेधप्रकारोऽस्ति त्वयैव निषिध्यमानत्वात । $१२९. तदयुक्तम्, त्रिलोकेश्वरताविशेषमात्रं भवतो निषिध्यते यथा घटप्रमाणत्वं मुक्तानां चार धर्मों में से किसी एकका किसी खास स्थानमें निषेध होता है, उस वस्तुका सर्वथा अभाव तो किसी भी तरह नहीं किया जा सकता। जैसे 'इस घरमें देवदत्त नहीं है' इत्यादि प्रयोगोंमें देवदत्त और घर दोनों मौजूद हैं । मात्र उनके संयोगका ही निषेध किया गया है, देवदत्तका सर्वथा निषेध तो किसी भी तरह नहीं किया जा सकता। उसी तरह 'खरविषाण नहीं है' इस प्रयोगमें गधा भी मौजूद है तथा सींग भी, मात्र उनके समवायका हो निषेध विवक्षित है कि 'गधेमें सींगका समवाय विशिष्ट सम्बन्ध नहीं है' न तो इसमें गधेका ही निषेध होता है और न सींगका ही क्योंकि दोनों ही स्वतन्त्र रूपसे अन्यत्र मौजूद हैं, 'दूसरा चन्द्रमा नहीं है। इस प्रयोगमें मौजूद चन्द्रमाके सादृश्यका अन्यत्र निषेध किया जा रहा है कि-इस चन्द्रमाके समान धर्मवाला दूसरा चांद नहीं है। चन्द्रमा अनेक नहीं है एक ही है। इससे चन्द्रमाका सर्वथा अभाव नहीं किया जाता। इसी तरह 'मोती घड़ेके बराबर बड़े नहीं हैं। इस प्रयोगमें न मोतीका ही निषेध है और न घड़ेके बराबर मापका ही किन्तु घड़ेके मापका जो कि घड़ेका विशेष धर्म है, मोतोमें निषेध किया गया है कि घड़े बराबर मोती नहीं है। इसी प्रकार 'आत्मा नहीं है' इसका तात्पर्य ही यह है कि कहीं-न-कहीं विद्यमान आत्माका किसी खास शरीर आदिसे संयोग नहीं है। जैसे 'इस शरीरमें आत्मा नहीं है। यहाँ शरीर और आत्माके मात्र संयोगका ही निषेध किया जा रहा है उसी प्रकार 'आत्मा नहीं है' इस सामान्य निषेधमें भी 'आत्माका अमुक किसी वस्तुके साथ संयोग नहीं है' इस प्रकार मात्र संयोगका हो निषेध समझना चाहिए आत्माका सर्वथा निषेध नहीं। १२८. शंका-यदि जिसका निषेध होता है उसका सद्भाव अवश्य ही हो, तो आप लोग मुझे तीन लोकका ईश्वर नहीं मानते, अर्थात् मेरी त्रिलोकेश्वरताका निषेध करते हैं अतः मेरी त्रिलोकेश्वरताका भी सद्भाव होना चाहिए। इसी तरह आपने निषेधके प्रकरणमें संयोग आदि निषेधके चार प्रकारों के अतिरिक्त पाँचवें प्रकारका निषेध किया है अतः निषेधके पांचवें प्रकारका भी सद्भाव होना चाहिए। ६१२९. समाधान-जिस प्रकार मोतीमें घड़ेके नापका निषेध किया जाता है उसी तरह त्रिलोकेश्वरता नामके विशेषधर्मका ही जो कि तीर्थंकर में प्रसिद्ध है, आपमें निषेध किया जा रहा १. गहे देव-आ., कः। २. ते न तु तदभावः तथा द्वितीयचन्द्राभावान्नास्ति चन्द्रसामान्यमित्यादिषु चन्द्रसामान्यादीनां सतामेव सामान्यं निराक्रियते न तु तदभावः ख्याप्यते तथा न सन्ति भ. २ । ३. -भावः अपाक्रियते इति भ. २।४. तया आ. । ५. -त्मनोऽसत्त्व-आ., क. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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