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-का० ४९ ६ १२७] जैनमतम् ।
२३१ $ १२६. तथा स्वशरीरे स्वसंवेदनप्रत्यक्षमात्मानं साधयित्वा परशरीरेऽपि सामान्यतो. दृष्टानुमानेन साध्यते। यथा परशरीरेऽप्यस्त्यात्मा, इष्टानिष्टयोः प्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात्, यथा स्वशरीरे । दृश्येते च परशरीर इष्टानिष्टयोः प्रवृत्तिनिवृत्ती, तस्मात्तत्सात्मकम्, आत्माभावे तयोरभावात्, यथा घटे इति । एतेन यदुक्तम् 'न सामान्यतोदृष्टानुमानावप्यात्मंसिद्धिः' इत्यादि'; तदप्यपास्तं द्रष्टव्यम्।
5 १२७. तथा नास्ति जीव इति योऽयं जीवनिषेधध्वनिः सजीवास्तित्वनान्तरीयक एव, निषेधशब्दत्वात् । यथा नास्त्यत्र घट इति शब्दोऽन्यत्र घटास्तित्वाविनाभाव्येव । प्रयोगश्चात्र-इह यस्य निषेधः क्रियते तत्वचिदस्त्येव, यथा घटादिकम् । निषिध्यते च भवता 'नास्ति जीवः' इति वचनात् । तस्मादस्त्येवासौ। यच्च सर्वथा नास्ति, तस्य निषेधोऽपि न दृश्यते, यथा पञ्चभूतातिरिक्तषष्ठभूतस्येति । नन्वसतोऽपि खरविषाणादेनिषेधदर्शनादनकान्तिकोऽयं हेतुरिति चेत; न; इह यत्किमपि वस्तु निषिध्यते, तस्यान्यत्र सत एव विवक्षितस्थाने संयोग-समवाय-सामान्य
१२६. ९. इसी तरह अपने शरीरमें 'मैं सुखी हूँ' इस स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे आत्माका अनुभव करके दूसरेके शरीरमें भी अपने शरोरके समान धर्म देखकर सामान्यतोदष्टानमानसे भी आत्माकी सिद्धि की जाती है। दूसरेके शरीरमें भी आल्माका सद्भाव है, क्योंकि उसमें हमारे शरीरकी तरह इष्ट पदार्थमें प्रवृत्ति तथा अनिष्ट पदार्थसे निवृत्ति देखी जाती है। जिस प्रकार हमारा शरीर सांपकांटा आदि अनिष्ट हानिकर पदार्थों से बचना चाहता है तथा सुन्दर भोजन आदिकी ओर झुकता है इसी तरह दूसरेका शरीर भी यही चाहता है। अतः यह मानना ही चाहिए कि जिस तरह हमारे शरीरमें आत्मा है उसी तरह पर-शरीरमें भी। यदि शरीरमें आत्मा न हो तो उसका अनिष्ट पदार्थोंसे दूर भागना तथा इष्ट पदार्थोंमें आसक्तिपूर्वक चिपकना नहीं हो सकेगा। देखो घड़ेमें आत्मा नहीं है तो उसपर चाहे साँप चढ़ जाये तो जैसा और उसमें दूध भर दो तो जैसा उसमें कोई प्रवृत्ति-निवृत्ति नहीं देखी जाती। अतः जो आपने पहले कहा था कि 'सामान्यतोदृष्ट अनुमानसे आत्माकी सिद्धि नहीं हो सकती' वह खण्डित हो गया, क्योंकि अपने शरीरमें देखे गये प्रवृत्तिनिवृत्तिका आत्माके साथ सामान्य रूपसे अविनाभाव ग्रहण करके ही दूसरेके शरीरमें आत्माका अनुमान किया गया है। यही तो सामान्यतोदृशानुमान है।
१२७. तथा 'जीव नहीं है' यह जीवका निषेध जीवके अस्तित्वसे अविनाभाव रखता है, यह निषेध जीवके सद्भावके बिना नहीं हो सकता, क्योंकि यह निषेधात्मक प्रयोग है । जिस प्रकार 'यहाँ घड़ा नहीं है' यह घटका निषेध दूसरी जगह घड़ेकी मौजूदगोके बिना नहीं हो सकता उसी प्रकार जीवका निषेध भी कहीं-न-कहीं जीवके सद्भावको अपेक्षा रखता है, वह जीवके सद्भावके बिना नहीं हो सकता। प्रयोग-जिसका निषेध किया जाता है वह कहीं-न-कहीं विद्यमान अवश्य होता है जैसे कि घड़ा आदि । “जीव नहीं हैं" इस रूपसे आप जीवका भी निषेध करते हैं। अतः जीवका कहीं-न-कहीं सद्भाव अवश्य ही होना चाहिए। प्रतिषेध विधिपूर्वक ही होता है। जो बिलकुल नहीं है उसका निषेध भी नहीं देखा जाता जैसे पृथिवी आदि पांच महाभूतोंसे भिन्न किसी छठे भूतका।
- शंका-खरविषाण आदि सर्वथा असत् पदार्थों का भी निषेध देखा जाता है अतः जिसका निषेध हो उसका सद्भाव होना ही चाहिए यह कोई खास आवश्यक नहीं है।
समाधान-जिस किसी वस्तुका निषेध किया जाता है उसे कहीं-न-कहीं विद्यमान तो अवश्य ही रहना चाहिए। हाँ, निषेध करते समय उसके संयोग, समवाय, सामान्य या विशेष इन
१. दृष्टादप्यनुमानादात्म-म. । २. इत्याद्यप्यपास्तम्-भ. २। ३. जीवास्तित्वेनान्त-आ., क.। जीवास्तित्वानान्त-म. २। ४. -भवता तस्मा- भ.१,२,प..,२।
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