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________________ २३० षड्दर्शनसमुच्चये [का०४९.६१२५दानकारणपूर्वकं कार्यत्वात् घटादिवत् । न च शरीरे तदाश्रितत्वस्य तदुपादानत्वस्य चेष्टत्वात् सिद्धसाधनमित्यभिधातव्यम्, तत्र तदाश्रितत्वतदुपादानत्वयोःप्राक् प्रतिव्यूढत्वात् । तथा प्रतिपक्षवानयम् अजीवशब्दः, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपवप्रतिषेधात् । यत्र व्युत्पत्तिमतः शुद्धपदस्य प्रतिषेधो दृश्यते स प्रतिपक्षवान् यथा अघटो घटप्रतिपक्षवान् । अत्र हि अघटप्रयोगे शुद्धस्य व्युत्पत्तिमतश्च पदस्य प्रतिषेधः । अतोऽवश्यं घटलक्षणेन प्रतिपक्षेण भाव्यम् । यस्तु न प्रतिपक्षवान्, न तत्र व्युत्पत्तिमतः शुद्धपदस्य प्रतिषेधः, यथा अखरविषाणशब्द अडिथ इति वा। अखरविषाणमित्यत्र खरविषाणलक्षणस्याशुद्धस्य सामासिकस्य पदस्य निषेधः। अत्र व्युत्पत्तिमत्त्वे सत्यपि शुद्धपदत्वाभावाद्विपक्षो नास्ति । अडित्य इत्यत्र तु व्युत्पत्तिमत्त्वाभावात् सत्यपि शुद्धपदत्वे नावश्यं डिस्थलक्षणः कश्चित् - पदार्थो जीववद्विपक्षभूतोऽस्तीति । क्योंकि वे गुण हैं। जैसे रूपादि गुण घड़ेके आश्रित रहते हैं उसी तरह जिस द्रव्यमें ज्ञानादिगुण रहते हों वही आत्मा है । गुण निराधार नहीं रह सकते । उनका कोई न कोई आश्रय होना ही चाहिए। ७. ज्ञान सुख आदि कार्योंका कोई न कोई उपादान कारण अवश्य है क्योंकि ये कार्य हैं। जिस प्रकार घड़ा कार्य है अतः उसका उपादान कारण-( जो स्वयं कार्य बन जाता है ) मिट्टीका पिण्ड भी मौजूद है उसी तरह ज्ञान सुख आदिका जो उपादान कारण है जो स्वयं ज्ञानी और सुखी बनता है वही आत्मा है। शंका-ज्ञान आदि गुणोंका आश्रय शरीर ही है तथा इनका उपादानकारण भी शरीर ही होता है। अतः आपके अनुमानोंसे हम शरीरकी सिद्धि मान लेंगे। इसी तरह सिद्धसाधन-जिन्हें प्रतिवादी स्वीकार करता है उन सिद्ध पदार्थोंको साधना-होनेसे आपके अनुमान निरर्थक हैं।। समाधान-हम पहले ही शरीरमें ज्ञानादि गुणोंके रहनेका तथा शरीरको ज्ञानादिके प्रति कारण होनेका खण्डन कर आये हैं । अतः इन अनुमानोंसे शरीरकी सिद्धिका मनसूबा नहीं बांधा जा सकता और न सिद्धसाधन ही कहा जा सकता है। अतः इनसे ज्ञानादिगुणोंके आश्रय तथा उपादानभूत आत्माको सिद्धि होती ही है। ८. अजीवका प्रतिपक्षी जीव अवश्य है, क्योंकि 'न जीवः अजोवः' इस निषेधवाची अजीव शब्दमें व्युत्पत्तिसिद्ध ( व्याकरणके नियमानुसार प्रकृति प्रत्ययसे बने हुए जीवतीति जोवः) तथा शुद्ध अखण्ड जीव पदका निषेध किया गया है । जिस निषेधात्मक शब्दमें व्युत्पत्तिवाले शुद्ध पदका निषेध होता है उसका प्रतिपक्षी अवश्य होता जैसे निषेधात्मक अघट शब्दका प्रतिपक्षी घट अवश्य ही होता है । इस अघट शब्दमें व्युत्पत्तिवाले शुद्ध घट पद का 'न घटः अघटः' रूपसे निषेध किया गया है अत: इसका उलटा घट अवश्य ही होगा। जिस निषेधात्मक शब्दका प्रतिपक्षी अर्थ न हो तो समझ लो कि वह या तो व्युत्पत्ति सिद्ध शब्दका निषेध नहीं करता या फिर शुद्ध-शब्दका निषेध नहीं करता, किन्तु किसी रूढ़ शब्दका या दो शब्दोंके जुड़े हुए संयुक्त शब्दका निषेध करता होगा। जैसे 'अखरविषाण' शब्द खर और विषाण इन दो शब्दोंसे बने हए 'खरविषाण' इस संयुक्त या अशद्ध शब्दका निषेध करता है अतः उसका प्रतिपक्षी खरविषाण अपनी वास्तविक सत्ता नहीं रखता। इसी तरह अडित्थ शब्द यद्यपि अखण्ड डिस्थ पदका निषेध करता है परन्तु डित्थ शब्द व्युत्पत्तिसिद्ध-योगिक न होकर एक रूढ़ शब्द है। अतः इसके प्रतिपक्षी डित्थका होना आवश्यक नहीं है। परन्तु 'अजीव' यह निषेधवाची शब्द यौगिक तथा अखण्ड जीव पदका निषेध करता है अतः इसका प्रतिपक्षी जीव अवश्य ही होना चाहिए। १. “संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेधादते क्वचित् ।" -आप्तमी. इलो. २७ । २. यथा घटः पटप्रति पक्ष-म. २।३.-मतश्च घटस्य (पदस्य) प्र-आ,, -मतस्य पटस्य निषेधो-म.३। ४.-स्य निषेध: म. १,२, प. १,२। ५. -न सप्रति-म. २ । ६. - त्थः अथवा खर-म.२। . Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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