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________________ - का० ४९. $ १२५ ] जैनमतम् । कारत्वं मेर्वादीनामप्यस्ति, न च तेषां कश्चिद्विधातेति तैरनैकान्तिको हेतुः स्यात्, अतस्तद्वेयवच्छेदार्थमादिमत्त्व विशेषणं द्रष्टव्यम् । तथेन्द्रियाणामस्त्यधिष्ठाता, करणत्वात्, यथा दण्डचक्रादीनां कुलालः विद्यमान भोक्तृकं शरीरं भोग्यत्वात्, भोजनवत् । यश्च भोक्ता स जीवः । २ $ १२४. अथ साध्यविरुद्धसाधकत्वाद्विरुद्धा एवैते हेतवः । तथाहि घटादीनां कर्त्रादिरूपा: कुम्भकारादयो मूर्त्ता अनित्यादिस्वभावाश्च दृष्टा इति । अतो जीवोऽप्येवंविध एव सिध्यति । एतद्विपरीतश्च जीव इष्ट इति । अतः साध्यविरुद्धसाधकत्वाद्विरुद्धत्वं हेतुनामिति चेत्; न, यतः खलु संसारिणो जीवस्थाकर्मपुद्गलवेष्टितत्वेन सशरीरत्वात् कथंचिन्मूर्त्तत्वान्नायं दोषः । 3 $ १२५. तथा रूपादिज्ञानं क्वचिदाश्रितं गुणत्वात्, रूपादिवत् । तथा 'ज्ञानसुखादिकमुपा ३. इस देहका कोई बनानेवाला है क्योंकि यह अमुक आकारका है तथा इसकी शुरूआत हुई है, जैसे कि किसी अमुक आकार में किसी खास समय में उत्पन्न होनेवाला घड़ा। जिसका कोई बनानेवाला नहीं होता वह अमुक आकार में उत्पन्न भी नहीं होता जैसे कि अनियत आकारमें सदा रहनेवाला बादल । यद्यपि मेरुपर्वत आदिका भी निश्चित आकार पाया जाता है फिर भी उसकी शुरूआत नहीं है वह अनादि है अतः उसका रचयिता भी कोई नहीं है । इसलिए मेरुपर्वत आदिसे व्यभिचार वारण करनेके लिए ही 'आदिमान्' विशेषण दिया है। इस आदिमान् तथा अमुकं शकलवाले शरीरका जो भी बनानेवाला है वही आत्मा है । २२५ ४. इन्द्रियों का कोई अधिष्ठाता - प्रयोग करनेवाला स्वामी है, क्योंकि ये करण - हथियार रूप हैं । जिस प्रकार दण्ड-चक्र आदि घड़े बनानेके औजारोंका अधिष्ठाता - प्रयोक्ता कुम्हार होता है उसी प्रकार जो इन इन्द्रियरूपी औजारोंका प्रयोग करके जानता देखता है वही आत्मा है । ५. इस शरीरका कोई भोगनेवाला है क्योंकि यह भोग्य है । जिस प्रकार बनाये गये भोजनका कोई न कोई खानेवाला होता है उसी तरह इस शरीरको भोगनेवाला जो भी भोक्ता है वही आत्मा है । $ १२४. शंका- आपके द्वारा दिये गये उपरोक्त पाँचों हेतु विरुद्ध हैं, क्योंकि आप तो इनके द्वारा. अमूर्त आत्मा सिद्ध करना चाहते हैं परन्तु दृष्टान्तरूपमें उपस्थित किये गये रथ चलानेवाला, कुम्हार आदि सभी पदार्थ तो मूर्त हैं अतः वे अपने हो समान मूर्त आत्माकी सिद्धि करेंगे। घड़े आदि बनानेवाले कुम्हार आदि तो मूर्तं तथा अनित्य हैं अतः इनकी समानतासे जीव भी मूर्त तथा अनित्य हो सिद्ध होगा, परन्तु आप तो जीवको अमूर्त और नित्य मानते हैं । इसलिए ये सब हेतु आपकी मान्यता के विरुद्ध साध्यको सिद्ध करनेके कारण विरुद्ध हेत्वाभास हैं । समाधान आपकी शंका उचित नहीं है । यद्यपि आत्मा स्वभावसे अमूर्त है परन्तु यह संसारी जीव अनादिकालसे आठ प्रकारके पुद्गल कर्मोंसे बंधा हुआ है, इसके चारों ओर कर्म पुद्गलों का एक बड़ा भारी पिण्ड, जिसे कार्माणशरीर कहते हैं, लगा हुआ है । और इस कार्माण शरीर के सदा साथ रहनेके कारण स्वभावसे अमूर्त भी आत्मा मूर्त हो रहा है । अतः यदि इन हेतुओंसे संसारी आत्मा मूर्त भी सिद्ध होता है तब भी हमारी कोई हानि नहीं है । हम उसे कर्मबन्धके कारण सशरीर तथा मूर्त भी मानते हैं । $ १२५. ६. रूपज्ञान, रसज्ञान आदि अनेक प्रकारके ज्ञान किसी आश्रयभूत द्रव्यमें रहते हैं १. - वच्छेदायादि भ. २ । २. एव ते भ. २ । ३. यतः संसा- म । ४. क्वचिन्मूर्त- भ. २ । "ववहारा मुत्ति बंधादो ।" - द्रव्यसं. गा. ७ । ५. " शब्दादिज्ञानं क्वचिदाश्रितं गुणत्वात् । " - प्रश. ज्यो. पृ. ३०३ । न्याय कुमु. पृ. ३४८ । प्रमेयक, पृ. ११३ । ६. " समवायिकारणपूर्वकत्वं कार्यत्वाद्रूपादिवदेव ।" - प्रश. व्यो. पृ. ३९३ । “ज्ञानसुखादि उपादानकारणपूर्वकं कार्यत्वात् घटादिवत् ।" न्यायकुमु. ५. ३४९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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