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-का० ४२.६ १२२] जैनमतम् ।
२२७ गुणः शब्दः किंतु पुद्गलगुणः, ऐन्द्रियकत्वात्, रूपादिवत् । एतच्च पुद्गलविचारे समर्थयिष्यते ।
६१२१. अत्राह ननु भवतु गुणानां प्रत्यक्षत्वात्तदभिन्नत्वाद्गुणिनोऽपि प्रत्यक्षत्वम् । किंतु देह एव ज्ञानाद्रयो गुणा उपलभ्यन्ते । अतः स एव तेषां गुणी युक्तः, यथा रूपादीनां घटः। प्रयोगो यथा-ज्ञानादयो देहगुणा एव, तत्रैवोपलभ्यमानत्वात्, गौरकृशस्थूलत्वादिवत् । अत्रोच्यतेप्रत्यनुमानबाधितोऽयं पक्षाभासः। तच्चेदम्-देहस्य गुणा ज्ञानादयो न भवन्ति, तस्य मूर्तत्वाच्चाक्षुषत्वाद्वा, घटवत् । अतः सिद्धो गुणप्रत्यक्षत्वादग्रणो जीवोऽपि प्रत्यक्षः।
$ १२२. ततश्चाऽहं प्रत्ययग्राह्यं प्रत्यक्षमात्मानं निह्नवानस्य अश्रावणः शब्द इत्यादिवत् प्रत्यक्षविरुद्धो नाम पक्षाभासः। तथा वक्ष्यमाणात्मास्तित्वानुमानसदभावात् नित्यः शब्द इत्यादिव. दनुमानविरुद्धोऽपि । आबालगोपालाडनादिप्रसिद्धं चात्मानं निराकर्वतः। 'नास्ति सर्यः प्रकाशकर्ता'
हेतुमें व्यभिचार दिखाता है कि 'शब्द नामक आकाशके गुणका तो प्रत्यक्ष होता है परन्तु गुणी आकाशका तो प्रत्यक्ष नहीं होता' अतः उक्त नियम सदोष है।।
समाधान-शब्द आकाशका गुण है ही नहीं; वह तो पुद्गलद्रव्यका गुण है उसीका एक विशेष परिणमन है, क्योंकि वह बाह्य-श्रोत्र इन्द्रियके द्वारा ग्रहण किया जाता है। जो बाह्य इन्द्रियोंके द्वारा गृहीत होते हैं वे पुद्गलके ही गुण हैं जैसे कि घड़ेके रूप आदि गुण। अमूर्त आकाशके गुणका तो हम लोगोंको प्रत्यक्ष ही नहीं हो सकता। पुद्गलतत्त्वके विवेचनमें शब्दको पौद्गलिकत्व विस्तारके साथ सिद्ध करेंगे।
$१२१. चार्वाक-आपका यह नियम तो ठीक है कि-'गुणोंके प्रत्यक्ष होनेपर उनसे अभिन्न गुणीका भी प्रत्यक्ष होता है' पर इससे आत्माकी सिद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि हम ज्ञान आदिको शरीरका ही गुण मानते हैं । देहमें ही ज्ञान आदि गुण उपलब्ध होते हैं अतः देह ही ज्ञानादिका आधारभूत गुणी हो सकता है जैसे रूपादि गुणोंका आधारभूत घट ही रूपादिका गुणी है। प्रयोग-ज्ञान आदि देहके ही गुण हैं; क्योंकि वे देहमें ही उपलब्ध होते हैं जैसे कि गोरापन, दुबलापन एवं मुटापा आदि।
जैन -आपका अनुमान प्रबल प्रतिपक्षी अनुमानके द्वारा बाधित होनेसे अपने साध्यकी सिद्धि नहीं कर सकता, आपका पक्ष अनुमान बाधित होनेके कारण पक्षाभास है। वह प्रतिपक्षी अनुमान यह है-ज्ञान आदि देहके गुण नहीं हो सकते क्योंकि देह घटकी तरह मूर्त है तथा आंखोंसे दिखाई देती है। यदि ज्ञान आदि देहके गुण होते तो उसके गोरे रंग की तरह वे भी आँखोंसे दिखाई देते।
६ १२२. अतः हमारे 'गुणोंके प्रत्यक्षसे गुणीका भी प्रत्यक्ष' इस निर्दोष नियमके अनुसार आत्मा प्रत्यक्षसे सिद्ध ही हो जाता है । इस प्रकार 'मैं सुखी हूँ' इत्यादि अहम्प्रत्यय रूप मानसप्रत्यक्षसे प्रसिद्ध आत्माको लोप करने के लिए 'आत्मा नहीं है' यह पक्ष करना स्पष्ट रूपसे प्रत्यक्षविरुद्ध नामका पक्षाभास है । जैसे कोई कानसे सुनाई देनेवाले शब्दको अश्रावण सिद्ध करनेका विफल एवं प्रत्यक्षविरुद्ध प्रयास करता है ठीक उसी तरह खण्डन करनेवालेको भी 'मैं' रूपसे प्रतिभासित होनेवाली आत्माका लोप करना सरासर आंखोंमें धूल झोंकना है। इसी तरह जब आगे कहे जानेवाले अनेकों अनुमान आत्माकी सत्ताको डटकर सिद्ध करते हैं तब 'आत्मा नहीं है' यह अनुमान प्रतिपक्षी अनुमानसे बाधित है। 'जैसे 'शब्द नित्य है' यह पक्ष 'शब्द अनित्य है क्योंकि वह उच्चारणके बाद उत्पन्न होता है' इस प्रतिपक्षी अनुमानसे बाधित है। संसारमें बच्चेसे लेकर मूर्खसे मूर्ख ग्वाले तथा स्त्रियां आदि भी जिस आत्माका प्रत्यक्षसे सदा अनुभव करती हैं।
१. पुद्गल ऐन्द्रिय-म. २ । २. मूर्तत्वात् घट-म. २ ।
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