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२२६ षड्दर्शनसमुच्चये
[का० ४९.६१२०यतः सोऽपि साम्यादिभावो न वस्त्वन्तरनिमित्तः, तत्त्वान्तरापत्तिप्रसङ्गात्, किंतु पृथिव्यादिसत्तामात्रनिमित्तः, अतस्तस्यापि 'सर्वत्राप्यविशेषेण भावप्रसङ्गात् कुतः सहकारिकारणवैकल्यमिति । अथ वस्त्वन्तरनिमित्तः इति पक्षः तदप्ययुक्तम् तथाभ्युपगमे जीवसिद्धिप्रसङ्गात् । अथाहेतुकः, तर्हि सदा भावादिप्रसङ्गः, 'नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा हेतोरन्यानपेक्षणात् [प्र. वा. ३।३४ ]' इति वचनात् । तन्न त्वन्मते कायाकारपरिणामः संगच्छते। तदभावे तु दूरोत्सारितमेव प्राणापानपरिग्रहवत्त्वममीषां भूतानामिति, चैतन्यं न भूतकार्यमित्यतो जीवगुण एव चेतनेत्यभ्युपगन्तव्यम् ।
१२०. किंच, गुणप्रत्यक्षवादात्मापि गुणी प्रत्यक्ष एव । प्रयोगो यथा-प्रत्यक्ष आत्मा, स्मृतिजिज्ञासाचिकीर्षाजिगमिषासंशयादिज्ञानविशेषाणां तद्गुणानां स्वसंवेदनप्रत्यक्षत्वात् । इह यस्य गुणाः प्रत्यक्षाः स प्रत्यक्षो दृष्टः, यथा घट इति। प्रत्यक्षगुणश्च जीवः, तस्मात्प्रत्यक्षः । अत्राह परःअनैकान्तिकोऽयं हेतुः, यत आकाशगुणः शब्दः प्रत्यक्षः, न पुनराकाशम्; तदयुक्तम्; यतो नाकाश
जैन-आपने कहा तो है पर वह प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि भूतोंका अमुकमात्रासे मिश्रण भी कोई किसी अन्य वस्तु तो आकर करेगी नहीं; आपके मत में तो पृथिवी, पानी, आग और हवाके सिवाय कोई पांचवां पदार्थ तो है ही नहीं। यदि कोई पांचवां पदार्थ इन भूतोंका अमुक मात्रामें मिश्रण कर देता है तब वही आत्मा है, जिसके सद्भावसे मिश्रणमें विशिष्टता आकर चैतन्यकी अभिव्यक्ति होती है। यदि कोई अतिरिक्त पदार्थ नहीं है और इन्हीं भूतोंसे ही क्वचित् विशिष्ट मिश्रण हो जाता है, तब भूतोंकी सत्ता तो हर जगह है अतः सब घटपटादि पदार्थों में विशिष्ट मिश्रण होकर चैतन्य प्रकट हो जाना चाहिए। यदि भूतोंका कायाकार परिणमन कोई पाँचवीं वस्तु आकर कराती है तब वही पांचवीं वस्तु आत्मा है, जो इन चार भूतोंसे विलक्षण है। यदि भूतोंका शरीर रूपसे परिणमन करना अकारण ही अपने आप जब चाहे हो जाता है; तब सभी भूतोंका सदा शरीर रूपसे परिणमन होना चाहिए या बिलकुल भी नहीं होना चाहिए। अहेतुक वस्तु या तो सदा रहनेवाली आकाश आदिकी तरह नित्य होती है अथवा बिलकुल ही न रहनेवाली असत् होती है जैसे खरविषाण। वह कभी होनेवाली और कभी न होनेवाली नहीं हो सकती। कहा भी है-"अन्य हेतुओंकी अपेक्षा न रखनेवाला पदार्थ या तो सदा सत्-नित्य होगा, या बिलकुल असत् होगा। अन्य कारणोंकी अपेक्षासे ही पदार्थमें कादाचित्क-कभी-कभी होनेवाले होते हैं।" अतः आपके मतमें भूतोंका शरीर रूपसे परिणमन ही असम्भव है। जब शरीर ही नहीं बन सका तब उसमें श्वासोच्छवास का यन्त्र चलना तो दूरकी ही बात है, असम्भव है। इसलिए चैतन्य किसी भी तरह भूतोंका कार्य नहीं है वह तो आत्माका ही गुण हो सकता है।
१२०. चूंकि ज्ञान आदि गुणोंका प्रत्यक्ष होता है अतः गुणी आत्माको भी प्रत्यक्ष मानना उचित ही है । प्रयोग-आत्मा प्रत्यक्षका विषय है; क्योंकि स्मृति, जाननेकी इच्छा, कार्य करनेकी इच्छा, घूमनेको इच्छा, संशयादि ज्ञान इत्यादि उसके गुणोंका स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे अनुभव होता है। 'मैं स्मरण करता हूँ, मैं जानना चाहता हूँ' इत्यादि मानसिक स्वसंवेदन प्रत्यक्षमें स्मृति आदि गुणोंका स्वरूप स्पष्ट ही प्रतिभासित होता है। जिसके गुणोंका प्रत्यक्ष होता है उस गुणीका भी प्रत्यक्ष अवश्य होता है जैसे कि घटके रूप आदि गुणोंका प्रत्यक्ष होनेपर घट गुणीका प्रत्यक्ष होना प्रसिद्ध है। चूंकि जीवके ज्ञानादिगुण भी स्वसंवेदन प्रत्यक्षके विषय होते हैं अतः आत्माका भी प्रत्यक्ष मानना ही चाहिए।
शंका-वैशेषिक शब्दको आकाशका गुण मानता है। अतः वह अपनी मान्यतानुसार उक्त १. -प्यविशेषेण भावात्, कुतः भ. १, प.., -प्यविशेषणभावात् भ. २ । २. -कार्यमतो भ. २ । ३. -विशेषणानां तद्गुण-भ. २ ।
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