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________________ २२४ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ४९.६ ११४शरीरे वायुरस्ति, ततस्तवभावात्तत्र चैतन्याभाव इति न तेन व्यभिचारः, अत्रोच्यते-सति शुषिरे तत्र वातः सुतरां संभाव्यत एव । किं च यदि तत्र वायुवैकल्याच्चैतन्यस्याभावः ततो बस्त्यादिभिः संपादिते वायौ तत्र चैतन्यमुपलभ्येत, न च तत्र तत्संपादितेऽपि वायो चैतन्यमुपलभ्यते । ६११४. अथ प्राणापानलक्षणवायोरभावान्न तत्र चैतन्यमिति चेत्, न; अन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वाभावान्न प्राणापानवायोश्चैतन्यं प्रति हेतुता । यतो मरणाद्यवस्थायां प्रचुरतरदीर्घश्वासोच्छ्वाससंभवेऽपि चैतन्यस्यात्यन्तपरिक्षयः। तथा ध्यानस्तिमितलोचनस्य संवृतमनोवाक्कायोगस्य निस्तरङ्गमहोदधिकल्पस्य कस्यापि योगिनो निरुद्धप्राणापानस्यापि परमप्रकर्षप्राप्तश्चेतनोपचयः समुपलभ्यते। ६११५. अथ तेजसोऽभावान्न मृतावस्थायां चैतन्यमिति चेत्, तहि तत्र तेजस्युपनीते सति कथं न चेतनोपलभ्यते। ६११६. कि च, मृतावस्थायां यदि वायुतेजसोरभावेन चैतन्याभावोऽभ्युपगम्यते, तहि पड़कर खतम हो गया' यह तो केवल हवा ही बांधी जा रही है इसमें कोई दम नहीं है; क्योंकि जब शरीर भीतरसे पोला है, खोखला है और नाक आदिके छेद भी हैं तब हवाका अभाव तो कहा ही नहीं जा सकता। हवा तो थोड़ा भी अवकाश रहनेपर सर्वत्र पहुंच जाती है। यदि वायुके न रहनेसे आप मुरदेमें चैतन्यका अभाव कहते हैं, तो जिस समय गुदाके रास्ते नाली आदिके द्वारा पेटमें खूब डटकर हवा भर दी जाये तो आपके मतसे उसमें चैतन्य आ जाना चाहिए। परन्तु इस तरह हवासे फुला देनेपर भी उसमें चैतन्यका लेश भी नहीं आता। $११४. चार्वाक-आप तो हवा शब्दको पकड़कर उसके बालकी खाल खींचने लगे। भाई, फुटबालकी तरह मामूली हवाके भरे जानेसे थोड़े चैतन्य आता है। किन्तु जब श्वास लेने और निकालने के क्रमसे अपने-आप हवाके आने-जानेका सिलसिला चाल हो तभी उसमें चै जा सकता है। जैन-श्वासोच्छ्वासके चालू रहनेका चैतन्यके साथ कोई अन्वयव्यतिरेक नहीं है और न श्वासोच्छ्वासकी बुद्धिसे चैतन्यकी बढ़ती ही देखी जाती है। देखो, जब आदमी मरने लगता है तब खूब जोरसे दम फूलने लगती है परन्तु वहां चैतन्यकी बढ़ती तो नहीं देखी जाती, उल्टे उसके अत्यन्त नाशका ही समय उपस्थित हो जाता है। तथा कोई समाधिनिष्ठ योगी जब प्राणायामके द्वारा श्वासोच्छ्वासको कतई रोक देता है तब उस मन-वचनके व्यापारको निरोध करनेवाले, बिना लहरोंवाले प्रशान्त महासागरकी तरह शान्त चित्तवाले, आंख मूंदे हुए ध्यानावस्थ योगीके श्वासोच्छ्वासका अभाव होनेपर भी चैतन्यकी परम उत्कृष्ट दशाका विकास देखा. जाता है। ११५. इसी तरह गरमी निकल जानेके कारण मुरदेमें चैतन्यका अभाव. करना भी अयुक्त है; क्योंकि यदि आगके द्वारा मुरदेको खूब सेक दिया जाये उसमें पर्याप्त गरमी पहुँचा दी जाय तो आपके हिसाबसे उसमें चैतन्य आ जाना चाहिए । फिर तो ज्यों ही चितामें आग लगायी और मुरदा गरम हुआ कि खटसे उसे जो उठना चाहिए और अपने बिलखते हुए कुटुम्बियोंको सान्त्वना देने लगना चाहिए । परन्तु ऐसा कभी भी न देखा है और न सुना ही है। ६ ११६. यदि वायु और गरमीके न होनेसे मुरदा चेतनाशून्य माना जाता है तब उसमें कुछ देर बाद ही उत्पन्न होनेवाले कीड़ोंमें चैतन्य कहांसे आयगा । आपके हिसाबसे तो वायु और १. न तत्र व्यभि-म.३। २. तत्र सुतरां वातः भ.। ३. वायो समुप-म. १,२। प. १,२। ४. कथं चेतना नोपल-भ. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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