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________________ -का० ४९.६११३] जेनमतम् । २२३ व्यापारमुपैति, तस्य स्वयोग्यसंनिहितार्थग्रहणरूपत्वात्, चैतन्यस्य चामूर्तत्वेन तदयोग्यत्वात् । न च 'भूतानामहं कार्यम्' इत्येवमात्मविषयं भूतकार्यत्वं प्रत्यक्षमवगन्तुमलम्, कार्यकारणभावस्यान्वयव्यतिरेकसमधिगम्यत्वात् । न च भूतचैतन्यातिरिक्तः कश्विवन्धयो तदुभयान्वयव्यतिरेकैज्ञाताभ्यु'पगम्यते, आत्मसिद्धिप्रसङ्गात् । । । १११. तथा नानुमानेनापि चैतन्यस्य भूतकार्यत्वं प्रतीयते, तस्यानभ्युपगमात् "प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणं नान्यत्" [ ] इति वचनात् । अभ्युपगमेऽपि न ततो विवक्षितार्थप्रतीतिसिद्धिः। ११२. ननु कायाकारपरिणतेभ्यो भूतेभ्यश्चैतन्यं समुत्पद्यते, तदभाव एव चैतन्यभावात्, मद्याङ्गभ्यो 'मदशक्तिवत्' इत्याद्यनुमानाद्भवत्येव चैतन्यस्य भूतकायंत्वसिद्धिरिति चेत् न तद्भाव एव तद्भावादिति हेतोरनैकान्तिकत्वात्, मृतावस्थायां तद्भावेऽपि चैतन्यस्याभावात्। ___ ११३. स्यादेतत्, पृथिव्यप्तेजोवायुलक्षणभूतचतुष्टयसमुदायजन्य हि चैतन्यम्, न च मृतनहीं कर सकता। चैतन्य उत्पन्न हो या अनुत्पन्न, वह किसी भी हालतमें उसमें प्रत्यक्षका व्यापार नहीं हो सकता। क्योंकि प्रत्यक्ष योग्य और सन्निहित पदार्थोंको ही विषय करता है। किन्तु चैतन्य अमूर्ति होनेसे योग्य ही नहीं है। स्वयं प्रत्यक्ष 'मैं भूतोंसे उत्पन्न हुआ हूँ' इस अपनी ही भूतकार्यता को नहीं जान सकता; क्योंकि कार्यकारणभावके जाननेका सीधा और सरल मार्ग है अन्वयव्यतिरेक मिलाना । भूत और चैतन्यको छोड़कर कोई तीसरा अन्वयी पदार्थ इनके कार्यकारण भावको जाननेवाला उपलब्ध ही नहीं होता, जो इन दोनोंको जानकर इनके अन्वयव्यतिरेकको मिला सके। ऐसा ज्ञाता तो आत्मा ही हो सकता है। अतः चेतन्यको भूतकार्यताका भी परिज्ञान आत्माको माने बिना नहीं हो सकता। १११. अनुमानको तो आप प्रमाण ही नहीं मानते, अतः उसके द्वारा 'चैतन्य भूतोंका कार्य है' यह जानना निरर्थक ही नहीं है। "प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है इससे भिन्न कोई दूसरा प्रमाण नहीं है" यह स्वयं आपका ही वचन है । आप यदि अनुमानको स्वीकार भी करोगे, तब भी उससे चैतन्यमें भूतकार्यता नहीं साधी जा सकती। क्योंकि व्याप्तिका ग्रहण, उसका स्मरण, पहले वे गये हेतुसे वर्तमान हेतुकी समानता मिलाना भादि ऐसी बातें हैं जो आत्माके ही वशकी हैं। अनुयायी आत्मा माने बिना अनुमानका उत्पन्न होना ही कठिन है। इसके सिवाय कोई ऐसा अनुमान भी नहीं है जो आत्माको भूतोंका कार्य सिद्ध कर सके। ११२. चार्वाक-चैतन्यको भूतोंका कार्य सिद्ध करनेवाला निम्न अनुमान है-'शरीर रूपसे परिणत पृथिवी आदि भूतोंसे चैतन्य उत्पन्न होता है, क्योंकि शरीरके होनेपर ही चैतन्यकी उपलब्धि होती है, शरीरके नहीं होनेपर चैतन्य भी उपलब्ध नहीं होता, जैसे महुआ आदिके सड़ानेसे उनमें मादक शक्ति उत्पन्न हो जाती है और वे शराब कहलाने लगते हैं उसी तरह इन भूतोंकी जब शरीरके रूपमें विशिष्ट मिश्रण होकर चैतन्य उत्पन्न हो जाता है तब ये ही आत्मा कहे जाते हैं।' इस अनुमानसे चैतन्यकी भूतकार्यता बखूबी साधी जा सकती है। चैतन्य पृथिवी, जल, आग और हवा इन चारों भूतोंका अमुक मिकदारमें मिश्रण होनेपर ही चैतन्य उत्पन्न होता है। जब शरीर मुरदा हो जाता है तब उसका वह विशिष्ट रासायनिक मिश्रण बिगड़ जाता है, उसमें-से श्वासरूप हवा तथा गरमो आदि निकल जाती है अतः यह ठीक ही है कि उसका चैतन्य समाप्त हो जाय और वह अचेतन बन जाय। ६११३. जैन-आप कहते हो कि 'मुरदा शरीरमें हवा नहीं रही अतः उसका चैतन्य खतरेमें १. तस्य योग्य -म.२ । २. -तन्यादति-म. २। ३. -कज्ञोऽभ्यु-म. २। ४. इत्याह-"मदशक्तिवद् विज्ञानम् ।"-न्यायकुमु. पृ. ३४२। प्रमेयक. पृ.११५। ब्रह्मसू. शां. मा. ५३। न्यायमं. पृ. ४३७ । “मदशक्तिवच्चैतन्यमिति ।" -प्रकरणपं. पृ. १४६ । । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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