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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ४९.६ १०८$१०८. योऽपि 'स्थूलोऽहं कृशोऽहम्' इत्यादिप्रत्ययः समुल्लसति, सोऽप्यात्मोपकारकत्वेन शरीरे जायमान औपचारिक एव, अत्यन्तोपकारके भृत्ये 'अहमेवायं' इति प्रत्ययवत् ।
६१०९. तथा 'शरीरस्यैव चैतन्य प्रति कर्तृत्वम्' इत्यादि यदप्यवादि वाविब्रुवेण; तदप्युन्मत्तवचनरचनामात्रमेव; चेतनायाः शरीरेण सहान्वयव्यतिरेकाभावात् । मत्तमूच्छितप्रसुप्तानां तादृशशरीरसद्भावेऽपि न तथाविधं चैतन्यमुपलभ्यते। दृश्यते च केषांचित् कृशतरशरीराणामपि चेतनाप्रकर्षः, केषांचित् स्थूलदेहानामपि तदपकर्षः। ततो न तदन्वयव्यतिरेकानुविधायि चैतन्यम्, अतो न तत्कार्यम् ।
११०. किंच, नहि चैतन्यस्य भूतकार्यत्वे किमपि प्रमाणमुपलभामहे । तथाहि-न ताव. प्रत्यक्षम्, अतीन्द्रियविषये तदप्रवर्तनात् । नात्पन्नमनुत्पन्नं वा चैतन्यं भूतानां कार्यमिति प्रत्यक्ष
5 १०८. 'मैं मोटा हूँ, मैं दुबला हूँ' ये अहम्प्रत्यय अवश्य हो शरीरके मुटापे और दुबलेपनके निमित्तसे होते हैं। परन्तु ये प्रत्यय औपचारिक हैं, मुख्य नहीं हैं। बात यह है कि-शरीर आत्माका अत्यन्त सगा उपकारी है अतः इस चिरकालीन सम्बन्धके कारण शरीरमें भी अहम्प्रत्यय हो जाता है। शरीर तो इतना निकटसम्बन्धी है कि इसके बिना आत्माका जीना ही कठिन है।
बात जाने दो, जो नौकर अत्यन्त वफादार या विश्वासपात्र होता है. उसमें भी लोग 'यह मैं ही हूँ', 'यह तो हमारा दाहिना हाथ है' इत्यादि व्यवहार करने लगते हैं। अतः जिस प्रकार वफादार नौकरमें होनेवाला अहम्प्रत्यय मात्र व्यवहारकी घनिष्ठता दिखानेके लिए है वह मुख्य नहीं है उसी तरह शरीरके मुटापेमें 'मैं मोटा हूँ' यह प्रत्यय भी महज व्यावहारिक ही है, शरीर और आत्माके निकट सम्बन्धके कारण होनेवाला है मुख्य नहीं है।
१०९. 'शरोर ही चैतन्यका कर्ता है' आपका यह कुत्सित कथन तो शराबीकी सनकजैसा ही बेसिर-पैरका मालूम होता है, क्योंकि चेतनका शरीरके साथ कोई अन्वय या व्यतिरेक नहीं है। देखो, शराबके नशेमें उन्मत्त शराबीके, मूच्छित व्यक्तिके या गहरी नींदमें मस्तीसे सोये हुए मनुष्यके शरीर तो जैसाका तैसा मौजूद है परन्तु चैतन्यकी तो वही हालत नहीं है। मत्त, मच्छित आदि व्यक्तियोंमें चैतन्य तो नहींके समान ही हो जाता है। शरीरके साथ चैतन्यका अविनाभाव-अर्थात् नियत सम्बन्ध हो तो शरीर की बाढ़ या मुटापेमें चैतन्यका उत्कर्ष तथा शरीरकी दुर्बलतामें चैतन्यकी हानि देखी जानी चाहिए। परन्तु बहुत-से दुर्बल शरीरवाले अत्यन्त बुद्धिशाली उत्कृष्ट चैतन्यवाले देखे जाते हैं और बहुत-से मोटे शरीरवाले पहलवान् महालण्ठ मूर्ख शिरोमणि देखे जाते हैं । अतः शरीरके साथ चेतनाका अन्वयव्यतिरेक न होनेसे चैतन्यको शरीरका कार्य नहीं कह सकते।
$११०. 'पृथिवी आदि भूतोंसे चैतन्य उत्पन्न होता है' आपके इस विचित्र सिद्धान्तको सिद्ध करनेवाला कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं होता । देखिए-प्रत्यक्ष तो चैतन्यको भूतोंका कार्य नहीं साध सकता; क्योंकि प्रत्यक्षको दौड़ तो सामने रखे हुए योग्य स्थूल पदार्थों तक ही है, चैतन्य तो स्वभावतः अमूर्त होनेसे उसकी दौड़के बाहर है। प्रत्यक्षकी इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वह अमूर्त पदार्थोंको भी जान सके । अतीन्द्रिय पदार्थ उसको सीमाके बाहर हैं, वह उनमें प्रवृत्ति
१. “मदीयो भृत्य इति ज्ञानवन्मदीयं शरीरमिति भेदप्रत्ययदर्शनात् भृत्यवदेव शरीरेऽप्यहमिति ज्ञानस्य औपचारिकत्वमेव युक्तम् । उपचारस्तु निमित्तं विना न प्रवर्तते इत्यात्मोपकारकत्वं निमित्तं कल्प्यते । -प्रश. व्यो. पृ. ३९१ । न्यायकुमु. पृ. ३४९ । सन्मति. टी. पृ. ८६ । प्रमेयक. पू. ११२। २. "व्यतिरेकः तद्भावाभावित्वान्न तूपलब्धिवत् ।" -ब्रह्मसू. ३।३।५४ । तत्त्वसं. पं. पृ. ५२५ । तत्त्वार्थको. पृ. १०। “भूत-चैतन्ययोः कार्यकारणभावानुपपत्तेः ।" -न्यायकुमु. पृ. ३४४ । ३. ततोऽतदन्द -म. । ४. प्रत्यक्षं व्यापार म.१,२, प.१,२।
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