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-का०४९.६१०७] जैनमतम् ।
२२१ जेयज्ञातज्ञानोल्लेखी प्रतिप्राणि स्वसंवेद्यः प्रत्ययो जायमानः संवेद्यते। न चायं मिथ्या; बाधकाभावात् । नापि संदिग्धः; उभयकोटिसंस्पर्शाभावात् । न चेत्थंभूतस्यास्यानालम्बनत्वं युक्तम्; रूपादिज्ञाना. नामप्यनालम्बनत्वप्रसङ्गात् । नापि शरीरालम्बनत्वम्; बहिःका(क)रणनिरपेक्षान्तःकरणव्यापारेणोत्पत्तः। न खलु शरीरमित्थंभूताहंप्रत्ययवेद्यम्; बहिःकरणविषयत्वात् । अतः शरीरातिरिक्तः कश्चिदेतस्यालम्बनभूतो ज्ञानवानर्थोऽभ्युपगन्तव्यः तस्यैव ज्ञातत्वोपपत्तः। स च जीव एवेति सिद्धः स्वसंवेदनप्रत्यक्षलक्ष्य आत्मा।
१०७. तथा यदप्युक्तम् 'चेतनायोगेर्न सचेतनत्वाच्छरीरस्यवाहप्रत्ययः' इत्यादि तदपि प्रलापमात्रम्; यतश्चेतनायोगेऽपि स्वयं चेतनस्यैवाहप्रत्ययोत्पादो युक्तः, न त्वचेतनस्य यथा परःसहस्रप्रदीपप्रभायोगेऽपि स्वयमप्रकाशस्वरूपस्य घटस्य प्रकाशकत्वं न दृष्टं किन्तु प्रदीपस्यैव । एवं चेतनायोगेऽपि न स्वयमचेतनस्य देहस्य ज्ञातृत्वं कित्वात्मन एवेति तस्यैव चाहंप्रत्ययोत्पादः।
प्राणीका अनुभव हो रहा है। इसमें अनुभव करनेवाला 'मैं' शब्दका वाच्य पदार्थ ही आत्मा है। उपर्युक्त प्रतिभास निर्बाध रूपसे होता है अतः मिथ्या नहीं कहा जा सकता । निश्चित एक कोटिको विषय करता है अतः संशयरूप भी नहीं है। क्योंकि विरुद्ध दो कोटियोंमें झूलनेवाले चलित प्रतिभासको संशय कहते हैं । 'मैं सुखको अनुभव करता है' यह निर्बाध ज्ञान निविषय अर्थात् मात्र काल्पनिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि निर्बाध ज्ञानको काल्पनिक या निविषय कहनेपर तो 'यह घट है, यह रूप है' इत्यादि सभी ज्ञानोंको निविषय तथा काल्पनिक कहनेका अनुचित रिवाज पड़ जायेगा। फिर संसारमें कोई भी ज्ञान सविषयक नहीं रह पायेगा। उपर्युक्त प्रत्यय शरीरको विषय करनेवाला भी नहीं है। क्योंकि शरीरादि पदार्थोंका प्रतिभास तो चक्षु आदि बाह्य इन्द्रियोंके द्वारा होता है जब कि 'मैं सुखी हूँ' इस अनुभवमें बाह्य इन्द्रियोंको तनिक भी आवश्यकता नहीं है, यह तो शुद्ध मनोव्यापारसे ही उत्पन्न होनेवाला मानसिक ज्ञान है। शरीर कभी भी मनमात्रसे होनेवाले 'मैं सुखी हूँ' इस मानसिक अहंप्रत्ययका विषय नहीं हो सकता। वह तो घटादि पदार्थोंकी तरह बाह्य चक्षु आदि इन्द्रियोंसे जाना जाता है। जो अचेतन हैं तथा बाह्य इन्द्रियोंके द्वारा जाने जाते हैं वे कभी मानसिक अहंप्रत्ययके ग्राह्य नहीं हो सकते। अतः इस अहंप्रत्ययका विषय शरीरसे भिन्न कोई ज्ञानवाला पदार्थ मानना चाहिए, जो भी ज्ञानवाला पदार्थ 'मैं सुखी हैं। इस प्रत्ययमें 'मैं' शब्दका वाच्य है वही ज्ञाता है, वही आत्मा है, वही जीव है। इस तरह मानसिक स्वसंवेदनप्रत्यक्ष ही आत्माके सद्भावमें सबसे बड़ा साधक प्रमाण है।
६१०७. आपका यह कथन-'शरीर चेतनाके सम्बन्धसे सचेतन बनकर अहंप्रत्ययका विषय होता है'; कोरी बकवास है; क्योंकि पहले तो अचेतनमें अचेतनका सम्बन्ध ही नहीं हो सकता। जो स्वयं चेतन नहीं है वह अचेतन है, हजारों बार चेतनासे सम्बन्ध रखनेपर भी चेतन नहीं बन सकता है और न अहम्प्रत्ययका विषय ही हो सकता है । जैसे स्वयं अप्रकाश रूप घड़ेमें हजारों दीपकोंका संयोग कर दीजिए, पर वह कभी भी स्वयं प्रकाशक नहीं हो सकता, प्रकाशक तो स्वयं प्रकाशवाला दीपक ही हो सकता है। इसी तरह शरीरमें चेतनाका सम्बन्ध होनेपर भी चेतनावाला आत्मा ही हो सकता है और वही अहम्प्रत्ययका विषय हो सकता है।
१. "न शरीरालम्बनमन्तःकरणब्यापारेण उत्पत्तेः । तथाहि न शरीरमन्तःकरणपरिच्छेद्यं बहिविषयत्वात्।" -प्रश. व्यो. पृ. ३११। प्रमेयक. पृ.११२ । २. -पत्तिः म. २ । ३. स्वसंवेदप्रत्यक्ष आत्मा भ. २ । स्वसंवेदनवेद्याहंप्रत्ययोत्पादयुक्तो न त्वचेतनः प्रत्यक्षलक्ष्य आत्मा क.। ४. -योगेनेत्यादि तन्न प्रकाशयोगेऽपि स्वयमप्रकाशस्वरूपस्य घटस्य प्रकाशकत्वं न दृष्टं म.२ ।
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