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________________ २२० षड्दर्शनसमुच्चये [का० ४९.६१०३ - ६१०३. तथा नोपमानप्रमाणोपमेयोऽप्यात्मा। तत्र हि यथा गौस्तथा गवय इत्यादाविव सादृश्यमसंनिकृष्टेऽर्थे बुद्धिमुत्पादयति । न चात्र त्रिभुवनेऽपि कश्चनात्मसदृशपदार्थोऽस्ति यद्दर्शनादात्मानमवगच्छामः । ननु कालाकाशविगादयो जीवतुल्या विद्यन्त एवेति चेत्, न; तेषामपि विवादास्पदीभूतत्वेन तवंहिबद्धत्वात् । $१०४. तथापत्तिसाध्योऽपि नात्मा। नहि दृष्टः श्रुतो वा कोऽप्यर्थ आत्मानमन्तरेण नोपपद्यते, यबलात् तं साधयामः। $ १०५. ततः सदुपलम्भकप्रमाणविषयातीतत्वात् तत्प्रतिषेधसाधकाभावाख्यप्रमाणविषयोकृत एव जीव इति स्थितम् ।। ६१०६. अत्र प्रतिविधीयते । यत्तावदुक्तम् "इह कायाकारपरिणतानि भूतान्येवोपलभ्यन्ते न पुनस्तद्व्यतिरिक्त आत्मा, तत्सद्भावे प्रमाणाभावात्" इत्यादि; तदसमीक्षिताभिधानम्; प्रत्यक्षस्यैव तत्सद्भावे प्रमाणस्य सद्भावात् । तथाहि-सुखमहमनुभवामि' इत्यन्योन्यविविक्तइत्यादि सन्देहरूपी दावानलकी ज्वालाओंमें ही विचारे आगमकी प्रमाणता जलकर खाक हो गयी है। तब ऐसे अप्रामाणिक आगमसे जीवसिद्धि नहीं की जा सकती। १०३. उपमान प्रमाण भी आत्माको सत्ता सिद्ध करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि जब गाय और रोज दोनों ही प्रत्यक्षके विषय हैं, तभी 'गौके समान गवय होता है' इस वाक्यका स्मरण कर और गवयको सामने देखकर परोक्ष गौमें सादृश्य बुद्धि होती है। परन्तु इस त्रिलोकमें कोई भी पदार्थ आत्माके समान नहीं है, जिसे देखकर आत्माकी सत्ताका उपमान किया जा सके। काल, आकाश, दिशा आदि सभी अमूर्त पदार्थ जीवके समान ही अप्रत्यक्ष होनेसे विवादमें पड़े हैं, अनिश्चित हैं । अतः जीवकी टाँगसे इनकी भी टांगें भी बंधी हैं। $१०४. इसी तरह अर्थापत्तिसे भी आत्माका सद्भाव सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकिआत्माके बिना नहीं होनेवाला कोई भी अविनाभावी अर्थ न तो देखा ही गया है और न सुना ही गया है, जिसके बलपर अर्थापत्ति आत्माके सिद्ध करनेका गुरुतम भार उठावे।। १०५. अन्त में जब आत्माके सद्भावको साधनेवाले प्रत्यक्ष आदि कोई भी प्रमाण नहीं मिलते, किसीकी भी हिम्मत आत्माको विषय करनेकी नहीं होती; तब अभाव प्रमाण ही आत्माको विषय करेगा और वह आत्माकी सत्ताको समूल उच्छेद करके ही छोड़ेगा। अतः आत्मनामका कोई भी स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है। १०६. जैन ( उत्तरपक्ष )-आपका यह कहना-शरीररूपसे परिणत भूतोंको छोड़कर अन्य आत्माको सिद्ध करनेवाले प्रमाण नहीं हैं। नितान्त अविचारपूर्ण है; क्योंकि समस्त प्रमाणोंमें ज्येष्ठ तथा श्रेष्ठ प्रत्यक्षप्रमाण ही आत्माकी सत्ताको बराबर सिद्ध करता है। जैसे-'मैं सुखक अनुभव करता है। इस प्रतिभासमें सखको अनुभव करनेवाला ज्ञाता, अनुभवमें आनेवाला विषयभूत सुख तथा अनुभव होना रूप ज्ञान क्रिया तीनों ही वस्तुओंका स्वतन्त्र रूपसे हर एक १. 'ननु' नास्ति आ. क., म. ., प.., । २. यदुक्तं म., २। ३. "स्वसंवेद्यः स भवति नासावन्येन शक्यते द्रष्टुम, नासावन्येन शक्यते द्रष्टुं कथमसौ निर्दिश्यत"असो पुरुषः स्वयमात्मानमुपलभते न चान्यस्मै शक्नोति दर्शयितुम्.."-शावरभा. १५। "अहं प्रत्ययविज्ञेयः स्वयमात्मोपपद्यते ॥१०७॥" -मीमांसाइलो. आत्मवाद। "स्वसंवेदनतः सिद्धः सदात्मा बाधवजितात् । तस्य क्ष्मादिविवर्तात्मन्यात्मन्यनुपपत्तितः॥ ९६ ॥" -तत्त्वार्थश्लो. पृ. २६ । शास्त्रवा. समु. श्लो.. ७९ । न्याकुमु. पृ. ३४३। "'सुख्यहं दुःख्यहमिच्छावानहम्' इत्याद्यनुपवरिताहम्प्रत्ययस्यात्मग्राहिणः प्रतिप्राणि संवेदनात् ।"-प्रमेयक, पृ. ११२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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