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________________ - का० ४९ ६ १०२ ] जैनमतम् । २१९ नावे ' प्रत्ययः स्यात् । यदि पुनर्जीव लिङ्गयोः प्रत्यक्षतः संबन्धसिद्धिः स्यात्, तदा जीवस्थापि प्रत्यक्षत्वापत्त्यानुमानवैयथ्यं स्यात्' तत एव जीवसिद्धेरिति । $ १०१. न च वक्तव्यं सामान्यतोदृष्टानुमानादादित्यगतिवज्जीवः सिध्यति, यथा गतिमानादित्यो देशान्तरप्राप्तिदर्शनात्, देवदत्तवत् इति । यतो हन्त देवदत्ते दृष्टान्तर्धामणि सामान्येन देशान्तरप्राप्तिर्गतिपूर्विका प्रत्यक्षेणैव निश्चिता सूर्येऽपि तां तथैव प्रमाता साधयतीति युक्तम् । न चैवमत्र क्वचिदपि दृष्टान्ते जीवसत्वेनाविनाभूतः कोऽपि हेतुरध्यक्षेणोपलक्ष्यत इत्यतो न सामान्यतो दृष्टादप्यनुमानात्तद्गतिरिति । १०२. तथा नाप्यागमगम्य आत्मा । अविसंवादिवचनामप्रणीतत्वेन ह्यागमस्य प्रामाण्यम् । न चैवंभूतमविसंवादिवचनं कंचनाप्याप्तमुपलभामहे यस्यात्मा प्रत्यक्ष इति । अनुपलम्भ ( लभ ) मानाचं कथमात्मानं विप्रलभेमहि । किं च, आगमाश्च सर्वे परस्परविरुद्ध प्ररूपिणः । ततश्च क प्रमाणं कश्चाप्रमाणमिति संदेहदावानलज्वालावलीढमेवागमस्य प्रामाण्यम् । ततश्च नागमप्रमाणादप्यात्मसिद्धिः ३ | अनुमानकी कोई आवश्यता ही नहीं रह जाती। क्योंकि जिस जीवको सिद्धिके लिए अनुमान किया जायेगा वह जीव तो प्रत्यक्षसे ही सिद्ध हो गया है। किन्तु यह सब प्रत्यक्षकी सामर्थ्य के बाहरकी बात है । १०१. शंका - किसी खास दृष्टान्त में अविनाभावका ग्रहण न भी हो, तो भी सामान्यरूपसे अविनाभाव ग्रहण कर हेतुसे साध्यका अनुमान हो सकता है, जिस प्रकार कि सूर्यको एक स्थान से दूसरे स्थान में पहुँचा हुआ देखकर उसकी गतिका अनुमान किया जाता है - सूर्य गति करता है क्योंकि वह देवदत्तकी तरह एक देशसे दूसरे देश में पहुँच जाता है । यहाँ यद्यपि सूर्यकी गति उसके प्रखर तेजके कारण पहले कभी भी गृहीत नहीं हुई फिर भी देवदत्तमें सामान्यतः अविनाभाव ग्रहण करके गतिका अनुमान किया ही जाता है, उसी तरह यद्यपि आत्माका प्रत्यक्ष नहीं होता फिर भी कहीं साधारण अविनाभाव ग्रहण करके किसी हेतुसे आत्माका अनुमान किया जा सकता है | समाधान - खेद है आपके तकं पर। अरे भाई, तुम्हारी समझमें इतनी मोटी बात नहीं आ रही है कि—-देवदत्त नामके दृष्टान्त में 'एक देशसे दूसरे देश में पहुँचना गतिपूर्वक है' यह व्यामि प्रत्यक्ष से हो देवदत्तको चलता-फिरता देखकर ग्रहण की जाती है । और जब उक्त व्याप्ति प्रत्यक्षसे गृहीत हो जाती है तभी सूर्यको एक जगहसे दूसरी जगह पहुँचा देखकर उसकी गतिका अनुमान होता है । पर यहाँ तो जीवकी सत्तासे अविनाभाव सम्बन्ध रखनेवाला कोई भी हेतु कभी भी प्रत्यक्षसे उपलब्ध नहीं होता । अतः सामान्यतोदृष्ट (जिनका अविनाभाव सामान्यरूपसे देखा गया है ) लिंगसे भी उसका अनुमान नहीं किया जा सकता है । १०२. आगम प्रमाणसे भी आत्माकी सिद्धि नहीं होती, क्योंकि - अविसंवादी - निर्दोष सत्य बोलनेवाले आप्तके द्वारा कहा गया ही आगम प्रमाणभूत हो सकता है। पर संसार में कोई ऐसा सर्वथा सत्यवादी आप्त ही नहीं दिखाई देता जिसने आत्माको हथेली पर रखे हुए आंवले की तरह आंखों देखा हो, या अन्य किसी उपायसे उसका प्रत्यक्ष किया हो । जब ऐसा कोई आप्त ही नहीं हो रहा है तब उसके नामसे चलनेवाले आगमों में विश्वास कर क्यों अपनेको ठगा जाये ? संसार में सैकड़ों ही आगम हैं, और कोई किसीसे जरा भी नहीं मिलता, सब एक दूसरेके विरोधी हैं। एक पूरबकी कहता है तो दूसरा पच्छिम की । और जब 'कौन आगम प्रमाण है कौन अप्रमाण ' १. सत्प्रत्ययः म २ । २. ना कथ- म. २ । ३. कः प्रमाणमिति सन्देह-भ. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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