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________________ २१८ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ४०. ६९९गृह्यत एव, यथा घटः । अणवोऽपि ह्यप्रत्यक्षाः, किंतु घटादिकार्यतया परिणतास्ते प्रत्यक्षत्वमुपयान्ति, न पुनरेवमात्मा कदाचिदपि प्रत्यक्षभावमुपगच्छति, अतोऽत्रात्यन्तेति विशेषणमिति न परमाणुभिर्व्यभिचार इति। ६९९. तथा नाप्यनुमानं भूतव्यतिरिक्तात्मसद्भावे प्रवर्तते, तस्याप्रमाणत्वात्, प्रमाणत्वे वा प्रत्यक्षबाधितपक्षप्रयोगानन्तरं प्रयुक्तत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात् । शरीरव्यतिरिक्तात्मपक्षो हि प्रत्यक्षेणैव बाध्यते। $१००. किंच लिङ्गलिङ्गिसंबन्धस्मरणपूर्वकं हनुमानम् । यथा-पूर्व महानसादावग्निधूमयोलिङ्गिलिङ्गयोरन्वयव्यतिरेकवन्तमविनाभावमध्यक्षेण गृहीत्वा तत उत्तरकालं कचित्कान्तारपर्वतनितम्बादौ गगनावलम्बिनी' धूमलेखामवलोक्य प्राग्गृहीतसंबन्धमनुस्मरति । तद्यथा-यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्निमद्राक्षं यथा महानसावी, धूमश्चात्र दृश्यते, तस्माद्वह्निनापोह भवितव्यमित्येवं लिङ्ग-ग्रहणसंबन्धस्मरणाभ्यां तत्र प्रमाता हतभुजमवगच्छति । न चैवमात्मना लिडिना साधं कस्यापि लिङ्गस्य प्रत्यक्षेण संबन्धः सिद्धोऽस्ति, यतस्तत्संबन्धमनुस्मरतः पुनस्तल्लिङ्गदर्शनहीं होता वह है ही नहीं, जैसे कि आकाशका फूल । जिसका सद्भाव होता है वह प्रत्यक्षसे प्रतिभासित होता ही है जैसे कि घट । यद्यपि परमाणु प्रत्यक्षके विषय नहीं होते परन्तु जब वे मिलकर घट आदि स्थूल रूपको धारण कर लेते हैं तब उनका प्रत्यक्ष हो ही जाता है ? पर आत्मा तो कभी भी किसी भी तरह प्रत्यक्षसे प्रतिभासित नहीं होता अतः कैसे इस नितान्त अप्रत्यक्ष पदार्थ की सत्ता मानी जाये । इसीलिए हमने 'अत्यन्त अप्रत्यक्ष' को हेतु बनाया है। परमाणु घट आदि की शकलमें आकर प्रत्यक्ष हो जाते हैं अतः उनसे हमारा हेतु व्यभिचारी नहीं हो सकता। आत्मा तो ऐसा विलक्षण है कि वह किसी भी तरह किसीको भी कभी भी प्रत्यक्ष नहीं होता, अतः वह है नहीं। ६९९. इसी तरह इन पृथिवी आदि भूतोंसे भिन्न आत्माकी अनुमानसे भी सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि पहले तो अनुमान प्रमाण ही नहीं हो सकता। यदि प्रमाण हो भी; तो प्रत्यक्ष बाधित आत्माको सिद्ध करनेमें हेतुको प्रवृत्ति होनेसे वह बाधित विषय होकर कालात्ययापदिष्ट हो जायेगा । शरीरसे भिन्न स्वतन्त्र सत्ता रखनेवाला आत्मा तो प्रत्यक्षसे बाधित है अतः ऐसे आत्मा को पक्ष बनाकर उसकी सत्ता सिद्ध करना तो अग्निमें ठण्डक सिद्ध करने के समान बाधित है। १००. दूसरी बात यह है कि-हेतु और साध्यके प्रत्यक्ष आदिसे गृहीत अविनाभाव . सम्बन्धकी स्मृति होने पर ही अनुमानकी प्रवृत्ति होती है। देखो, जब पहले रसोईघर आदिमें अग्नि और धुआँका अन्वय व्यतिरेकमूलक अविनाभाव सम्बन्धको प्रत्यक्षसे ग्रहण कर लेते हैं तब बादमें किसी जंगल या पर्वतकी गुफामें आकाश तक फैलनेवाले धुएँको देखकर पहले ग्रहण किये गये अविनाभावका स्मरण आ जाता है। उस समय अनुमान करनेवाला विचारता है कि रसोईघर आदिमें हमने जहां-जहां धुआँ देखा था वहां बराबर अग्नि थी। यहां भी वैसा हो धुआं दिखाई दे रहा है अतः यहां भी अवश्य अग्नि होनी चाहिए। इस प्रकारसे प्रमाता धूमहेतुको देखकर तथा पहले ग्रहण किये गये अविनाभावका स्मरण करके अग्निका अनुमान करता है। परन्तु आत्माके साथ किसी भी हेतुका न तो पहले अविनाभाव सम्बन्ध ही प्रत्यक्षसे ग्रहण किया गया है और न उस हेतुका दर्शन हो हो रहा है जिससे उस सम्बन्धका स्मरण करके हेतुसे आत्माका अनुमान किया जा सके । यदि जीव और उसके अनुमापक किसी हेतुका अविनाभाव सम्बन्ध प्रत्यक्षसे गृहीत हो सकता हो; तो उस अवस्थामें जीवका भी प्रत्यक्ष हो ही जायेगा, तब फिर १. -नी बहुलघूमले-भ. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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