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________________ - का० ४९. ६९८ ] जनमतम् । प्रति कर्तृत्वं युक्तम् । तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वाच्च । प्रयोगश्चात्र- यत् खलु यस्यान्वयव्यति कानुकरोति तत्तस्य कार्यं यथा घटो मृत्पिण्डस्य, शरीरस्यान्वयव्यतिरेकावनुकरोति च चैतन्यम्, तस्मात्तत्कर्तृत्वम् । अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यो हि सर्वत्र कार्यकारणभावः । तौ चात्र विद्येते, सति शरीरे चैतन्योपलब्धेः, असति चानुपलब्धेः । न च मृतशरीरे चैतन्यानुपलब्धेस्तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वमसिद्धम् इति वाच्यम्; मृतावस्थायां वायुतेजसोरभावेन शरीरस्यैवाभावात्, विशिष्टभूतसंयोगस्यैव शरीरत्वप्रतिपादनात् । न च शरीराकारमात्रे चैतन्योत्पत्तिर्युक्ता; चित्रलिखिततुरङ्गमादिष्वपि चैतन्योत्पत्तिप्रसङ्गात् । ततः सिद्धं शरीरकार्यमेव चैतन्यम् । ततश्च चैतन्यसहिते शरीर एवाहं प्रत्ययोत्पत्तिः सिद्धा । इति न प्रत्यक्षप्रमेय आत्मा, ततश्चाविद्यमान एव । प्रयोगश्चात्रनास्त्यात्मा, अत्यन्ताप्रत्यक्षत्वात्, यवत्यन्ताप्रत्यक्षं तन्नास्ति, तथा खपुष्पम् । यच्चास्ति तत्प्रत्यक्षेण मान लेना चाहिए। इसलिए प्रत्यक्षसिद्ध शरीरको ही जानना देखना आदि चेतनाका कर्ता मानना चाहिए। देखो, शरीर के होने पर इन्द्रियोंके द्वारा जो घट-पट आदि पदार्थ जाने जाते हैं जब शरीर नष्ट हो जाता है तब जानना आदि सब बन्द हो जाते हैं । अतः यह अनुमान करना बिलकुल सहज है कि शरीर ही चैतन्य - जानने आदि क्रियाओंका कर्ता है क्योंकि चैतन्यका शरीरके साथ ही अन्वय ( होने पर होना ) तथा व्यतिरेक ( नहीं होने पर नहीं होना ) पाया जाता है । जैसे कि मिट्टी के पिण्डके होने पर उत्पन्न होनेवाले तथा मिट्टीके पिण्डके अभाव में नहीं होनेवाले घड़े में मिट्टीका पिण्ड कारण माना जाता है उसी तरह चैतन्य भी शरीरके होने पर ही होता है शरीर के अभाव में कभी नहीं होता अतः चैतन्यका कारण भी शरीरको ही मानना चाहिए । सब जगह कार्यकारणभावको प्रतीति अन्वय और व्यतिरेकसे ही मानी जाती है। चैतन्य और शरीर में अन्वय और व्यतिरेक नियमित पाये जाते हैं । शंका-शरीर के मुर्दा हो जाने पर चैतन्य तो नहीं पाया जाता, अतः शरीर और चैतन्यका अन्वयव्यतिरेक नियमित कैसे कहा जा सकता है ? मृत शरीरमें चैतन्यका अन्वयव्यतिरेक असिद्ध है । समाधान - आप शरीरका अर्थ ही नहीं समझते । शरीरके माने हैं - गरमीवाला तथा श्वास आदि लेनेवाला शरीर । जब वह मुर्दा हो जाता है तब उसमें न तो गरमी हो रहती है और न श्वासरूप हवा ही अतः हम उस वायु और गरमीसे शून्य मृत शरीरको शरीर ही नहीं कहते, वह तो केवल मिट्टीका पुतला ही रह गया है। जिसमें पृथिवी आदि भूतोंका विलक्षण रासायनिक मिश्रण होता है और जब तक वह मिश्रण अपने प्रकृत रूपमें बना रहता है तभी तक वह शरीर कहा जा सकता है, मुर्दा अवस्थामें नहीं । 'शरीरका आकार बना है अतः उसमें चैतन्यकी उत्पत्ति होनी चाहिए' यह नियम तो किसी भी तरह उचित नहीं कहा जा सकता; क्योंकि मनुष्य या घोड़े के चित्रमें भी मनुष्य और घोड़ेके शरीरका हूबहू जैसाका तैसा आकार मौजूद है, अतः आपके नियमानुसार तो उन चित्रोंको भी बोलना चाहिए तथा जानना चाहिए, उनमें भी चैतन्यकी जागृति होनी चहिए । अतः यही मानना उचित तथा युक्तिसंगत है— चैतन्य शरीरका कार्य है । 'पृथिवी आदि भूतोंका विशिष्ट मिश्रण होनेसे बननेवाले शरीर में ही, जब तक वह मिश्रण अपने प्रकृत रूप में रहकर उसे शरीर बनाये रखता है तब तक चैतन्य उसके कार्यरूपमें कायम रहता है ।' अतः चैतन्यविशिष्ट शरीरमें ही 'मैं जानता हूँ' इस अहं प्रत्ययकी उत्पत्ति माननी चाहिए अतः आत्माको अहम्प्रत्ययका विषय मानकर प्रत्यक्षसिद्ध कहना अयुक्त है। और जब आत्म प्रत्यक्षका विषय नहीं हो सकती तब उसका सद्भाव नहीं माना जा सकता । अतः हम कह सकते कि- आत्मा नहीं है, क्योंकि वह सर्वथा अप्रत्यक्ष है, जो किसी भी तरह प्रत्यक्षको प्रतिभासिल १. त्वं न सिद्धमिति भ. २ । २८. २१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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