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________________ २१६ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ४९. ६९८ - प्रमाणाभावात् । तथाहि-भूतव्यतिरिक्तात्मसद्धावे किं प्रत्यक्ष प्रमाणं प्रवर्तेते उतानुमानम् । न तावत्प्रत्यक्षम; तस्य प्रतिनियतेन्द्रियसंबद्धरूपादिगोचरतया तद्विलक्षणे जीवे प्रवृत्त्यनुपपत्तेः । न च 'घटमहं वेद्मि' इत्यहंप्रत्यये ज्ञानकर्तृतयात्मा भूतव्यतिरिक्तः प्रतिभाति इत्यभिधातव्यम्; तस्य 'स्थूलोऽहं कृशोऽहम्' इत्यादिवच्छरीरविषयत्वस्यैवोपपत्तेः। न खलु तत्प्रत्ययस्यात्मालम्बनत्वमस्ति, आत्मनि स्थौल्यादिधर्मासंभवात् । तथा 'घटमहं वेद्मि' इत्यस्यापि प्रत्ययस्य न शरीरादन्यो भवत्परि कल्पितः कश्चनाप्यात्मा आलम्बनत्वेन स्वप्नेऽपि प्रतीयते। अप्रतीतस्यापि कल्पने कल्पनागौरवं प्रतिनियतवस्तुव्यवस्थाया अभावश्च स्यात् । न च जडरूपस्य शरीरस्य घटादेरिवाहंप्रत्ययोऽनुपपन्नः इति वाच्यम्; चेतनायोगेन तस्य सचेतनत्वात् । न च सा चेतना जीवकर्तृका इति वाच्यम्; तस्याप्रतीतत्वात् तत्कर्तृत्वमयुक्तम्, खपुष्पादेरपि तत्प्रसङ्गात् । ततः प्रसिद्धत्वाच्छरीरस्यैव चैतन्य चैतन्यके कारणभूत शरीराकार भूतोंको छोड़कर चैतन्य आदि विशेषणोंवाला, परलोक तक गमन करनेवाला कोई भी आत्मा नहीं है। आप जैसे आत्माका वर्णन करते हैं उसको सिद्ध करनेवाला कोई भी प्रमाण नहीं है। बताओ, इन पृथिवी आदिसे भिन्न आत्माको सिद्ध करनेवाला प्रत्यक्ष प्रमाण है या अनुमान प्रमाण ? प्रत्यक्ष तो भिन्न-भिन्न इन्द्रियोंसे उत्पन्न होकर अपनेसे सम्बन्ध रखनेवाले रूपादि स्थूल पदार्थोंको विषय करता है अतः आपके अमूर्त जीवमें तो उसको प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती। - शंका- इन्द्रिय प्रत्यक्षसे आत्माकी प्रतीति नहीं होती तो न हो, पर 'मैं घटको जानता हूं' इस स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा जानने रूप क्रियाका कर्ता आत्मा प्रतिभासित होता ही है। स्वसंवेदन प्रत्यक्ष पृथिवी आदि भूतोंका नहीं होता अतः वह आत्मा इन पृथिवी आदि भूतोंसे विलक्षण है। 'मैं हूँ' यह अहम्प्रत्यय ही आत्माका सबसे प्रबल साधक प्रमाण है ? समाधान-आप अहम्प्रत्ययके चक्कर में न पडिए। जिस प्रकार 'मैं मोटा हूँ. में दबला है। यह अहम्प्रत्यय मोटे और दुबले शरीरके कारण होता है अतः शरीरको ही विषय करता है उसी तरह 'मैं घटको जानता हूँ' यह अहम्प्रत्यय भी जाननेवाले शरीरको ही विषय करता है उससे विलक्षण किसी आत्माको नहीं। 'मैं मोटा हूँ, मैं दुबला हूँ ये प्रत्यय आत्माको तो विषय कर ही नहीं सकते क्योंकि आत्मामें मुटापा या दुबलापन तो होता ही नहीं है। इस तरह 'मैं घटको जानता हूँ' यह अहम्प्रत्यय भी जब प्रत्यक्ष सिद्ध शरीरको ही विषय करके बन जाता है तब इसको एक काल्पनिक आत्माको विषय करनेवाला माननेमें कल्पना गौरव है। तुम्हारा आत्मा तो स्वप्नमें भी नहीं दिखाई देता, जागतेकी तो बात ही दूर है। यदि इस तरह सर्वथा अप्रतीत पदार्थों की कल्पना करने बैठ जाय; तो फिर कल्पनाराज ही हो जायेगा, संसारकी सारी वस्तु व्यवस्थाका लोप हो जायेगा। हम कह सकते हैं कि घटप्रत्यय घटको विषय नहीं करके उसमें बैठेहुए एक अमूर्तीक भूतको विषय करता है। यदि कहो कि जिस प्रकार अचेतन घड़ेमें 'मैं घड़ा हूँ' यह अहम्प्रत्यय नहीं होता उसी तरह जडशरीरमें भी मैं घटको जानता हूँ' यह अहम्प्रत्यय नहीं बन सकता; सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि घट और शरीरमें बहुत अन्तर है। शरीर चेतनाके सम्बन्धसे सचेतन हो जाता है जब कि घड़ा सदा अचेतन ही रहता है। पृथिवी आदि भूतोंका वह विलक्षण मिश्रण शरीरमें ही हुआ है अतः चेतना शरीरमें ही प्रकट होतो है और इसीलिए 'मैं जानता हूँ' यह अहम्प्रत्यय सचेतन शरीरमें ही हो सकता है। उस चेतनाका कर्ता जीव हरगिज़ नहीं हो सकता; क्योंकि वह अविद्यमान है, किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है। असत् चीजको कर्ता बनाने पर तो आपको आकाशके फूलको भी चेतनाका कर्ता १.-तानुमानं वा न म. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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