________________
- का. ४९. ६९८ ]
जेनमतम् ।
भेदैकान्तं सौगतस्वीकृतं चाभेदैकान्तं प्रतिक्षिपति, सौगतेनापि बुद्धिक्षणपरम्परारूपस्यात्मनो धमित्वेन स्वीकारात् ।
१९५ तथा विविधं वर्तनं विवृत्तिर्नरामरादिपर्यायान्तरानुसरणं तद्वान् विवृत्तिमान् । अनेन भवान्तरगामिनमात्मानं प्रति विप्रतिपन्नांश्चार्वाकान् कूटस्थनित्यात्मवादिनो नैयायिकादीन्निरस्यति ।
२१५
९६. तथा शुभाशुभानि कर्माणि करोतीति शुभाशुभकर्मकर्त्ता । तथा स्वकृतस्य कर्मणो यत्फलं सुखादिकं तस्य साक्षादभोक्ता च । चकारो विशेषणानां समुच्चये । एतेन विशेषणद्वयेनाकर्त्तारमुपचरितवृत्त्या भोक्तारं चात्मानं मन्यमानानां सांख्यानां निरासः ।
९७. तथा चैतन्यं साकारनिराकारोपयोगात्मकं लक्षणं स्वरूपं यस्य स चैतन्यलक्षणः । एतेन जडस्वरूपो नैयायिका दिसंमत आत्मा व्यवच्छिद्यते । एवंविशेषणो जीवः समाख्यात इत्यत्रापि संबन्धनीयमिति ॥
१९८. चार्वाकाश्चर्चयन्ति यथा - इह कायाकारपरिणतानि चेतनाकारणभूतानि भूतान्येवोपलभ्यन्ते, न पुनस्तेभ्यो व्यतिरिक्तो भवान्तरयायो यथोक्तलक्षणः कश्चनाप्यात्मा, तत्सद्भावे निक्करण करके जीव और ज्ञान आदिमें कथंचित् भेदाभेद सिद्ध करनेके लिए 'भिन्नाभिन्न' विशेषण दिया है । बौद्ध ज्ञानक्षणोंके प्रवाहको आत्मा मानते हैं अतएव उनके मत से भी ऐसा आत्मा धर्मी है ।
९५. विवृत्तिमान् - यह जीव अनेक प्रकारकी मनुष्य देव आदि पर्यायोंमें वर्तन - निवास करनेवाला, इन पर्यायों रूपसे अपने स्वरूपको बदलनेवाला होता है। इस विशेषणसे आत्माको इस जन्ममें ही देहके साथ भस्म करनेवाले, उसे परलोकगामी नहीं माननेवाले चार्वाकोंका निराकरण हो जाता है । इसी तरह आत्माको कूटस्थ - अपरिवर्तनशील सर्वथा नित्य माननेवाले नैयायिक आदि का भी खण्डन हो जाता है ।
$ ९६. यह आत्मा अपनी अच्छी और बुरी भावनाओंसे शुभ और अशुभ दोनों प्रकारके कर्मों का कर्ता है । और 'जैसी करनी तैसी भरनी' के अनुसार उन कर्मोंके अच्छे और बुरे सुख और दुःख रूपी फलोंका भी स्वयं ही भोक्ता है । 'च' शब्दसे कर्ता और भोक्ता दोनों विशेषणोंके समुच्चयका परिज्ञान होता है । अर्थात् इन कर्ता और भोक्ता विशेषणोंसे आत्माको अकर्ता कहनेवाले तथा प्रकृति या बुद्धिके द्वारा आत्मामें उपचरित भोग माननेवाले सांख्योंके मतका निराकरण हो जाता है ।
९७. आत्मा चैतन्य रूप है । चैतन्य दो प्रकारका होता है-एक साकार चैतन्य-ज्ञान और दूसरा निराकार चैतन्य - दर्शन । जब चैतन्य किसी बाह्य पदार्थको जानता है उस समय वह साकार - घटादिको विषय करनेके कारण ज्ञान कहलाता है। तथा जिस समय चैतन्य किसी बाह्य अर्थके आकार न होकर निराकार — केवल चैतन्याकार ही रहता है उस समय वह दर्शन कहा जाता है। ज्ञान और दर्शन दोनों रूप उपयोग जीवका असाधारण स्वरूप है । इस विशेषणसे आत्माको स्वरूपसे जड़ अर्थात् ज्ञानशून्य माननेवाले नैयायिक आदिका निराकरण हो जाता है । जनमत में उपरोक्त विशेषणोंवाला जीव माना गया 1
६ ९८. चार्वाकमतवाले जीवको स्वतन्त्र पदार्थ नहीं मानते अतः वे जीवके उपरोक्त विशेषणोंसे असहमत होकर इस प्रकार चर्चा करते हैं
चार्वाक - ( पूर्वपक्ष ) इस संसार में आत्मा नामका कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है । पृथिवी जल आदिका एक विलक्षण रासायनिक मिश्रण होनेसे हो शरीर में चेतना प्रकट हो जाती है । इन
१. तथाविधं वर्तनं म. १, २, प. १, २ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org