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षड्दर्शनसमुच्चय है कि आचार्य गुणरत्न जैनागम प्रन्थोंसे ही नहीं किन्तु उनकी नियुक्ति भाष्य आदि टीकाओंसे भी सुपरिचित थे।
इसका दूसरा नाम अंचलमतनिराकरण भी मिलता है-जिनरत्नकोष देखें ।
(७) षड्दर्शनसमुच्चयको तकरहस्यदीपिका टीका-प्रस्तुत ग्रन्थमें मुद्रित यह टीका इतः पूर्व मुद्रित हो चुकी है। इसमें पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्यने उसका हिन्दी अनुवाद किया है और आचार्य गुणरत्नने जिन आधार ग्रन्थोंसे प्रस्तुत टीका लिखी है इनका निर्देश तत-तत् स्थानोंमें टिप्पणोंमें कर दिया है। यह प्रस्तुत संस्करणको विशेषता है।
आचार्य हरिभद्रने ८७ कारिकाओंमें षड्दर्शनसमुच्चय ग्रन्थको समाप्त किया था। किन्तु उसके प्रकरणोंका निर्देश नहीं किया था किन्तु आचार्य गुणरत्नने विषयविभागकी दृष्टिसे इसे छह अधिकारोंमें विभक्त कर दिया है । और विस्तृत टीका लिखी है।
जैनग्रन्थावलीमें गुणरत्नके नामसे १२५२ ग्रन्थप्रमाण षड्दर्शनसमुच्चयकी एक टीकाका उल्लेख है । किन्तु वह भ्रममूलक हो ऐसा लगता है। ला. द. विद्यामन्दिरके श्री शान्तिसागर संग्रहगत (नं. १३४) एक हस्तप्रतिमें जिसके अन्तमें ग्रन्थान १२५२ लिखा है लेखकके रूपमें किसीका नाम लिखा नहीं है। उसका प्रारम्भ "सज्ज्ञानदर्पणतले विमले"से होता है। और लेखकने संक्षेपमें वृत्ति लिखनेको प्रतिज्ञा की है।"व्यासं विहाय संक्षेपरुचिसत्वानुकम्पया। टीका विधीयते स्पष्टा षड्दर्शनसमुच्चये ॥" यह टीका विद्यातिलक अपर नाम सोमतिलककी कृति है । ऐसी स्पष्टता अन्यत्र की गयी है । अतएव उसे गुणरत्नकी कृति नहीं माना जा सकता । और न यही माना जा सकता कि गुणरत्नने कोई लघुटीका लिखी थी।
। प्रस्तुत गुणरत्नकृत टीकाका ग्रन्थान जैनग्रन्थावलीमें ४२५२ दिया है। किन्तु संवेगी उपाश्रयकी प्रति ( नं. ३३५९ ) में प्र. ४५०० है ऐसा निर्देश है ।
आचार्य हरिभद्रने षड्दर्शनोंका मात्र परिचय दिया है। दर्शनोंकी गुणवत्ताके विषयमें अपना कोई अभिप्राय नहीं दिया। अन्तमें केवल यह कह दिया कि
"अभिधेयतात्पर्यार्थः पर्यालोच्यः सूबुद्धिभिः" ॥८७॥ किन्तु गुणरत्नने तो आचार्य हरिभद्रको भी जैनदर्शनकी श्रेष्ठता अभिप्रेत थी ऐसा तात्पर्य निकाला है, देखेंप्रथम कारिकागत 'सद्दर्शन' शब्दको व्याख्या पृ. २ और पृ. ७, ६१२ । षड्दर्शनसमुच्चयको अन्य टोकाएँ
(१) सोमतिलकसूरि विरचित वृत्ति-ई. १९०५ में गोस्वामी श्री दामोदरलाल शास्त्री द्वारा सम्पादित होकर यह वृत्ति चौखम्बा संस्कृत ग्रन्थमालामें प्रकाशित हुई थी। किन्तु न मालूम क्यों उसे मणिभद्रकृत माना गया था। मुद्रित संस्करणमें "इति श्रीहरिभद्रसूरिकृतषड्दर्शनसमुच्चये मणिभद्रकृता लघुवृत्तिः समाप्ता"-ऐसा उल्लेख है । सम्पादकने एक प्रति जयपुरसे और अन्य प्रति बनारससे प्राप्त की थी। किन्तु जिनरत्नकोष और जैनग्रन्थावली आदि सूचीपत्रोंमें कहीं भी मणिभद्रकृत टीकाका उल्लेख नहीं है। यह भी देखा गया है कि ग्रन्थान १२५२ वाली यह वृत्ति जिसका प्रारम्भ "सज्ज्ञानदर्शनतले" से होता है उसकी कई प्रतियाँ कर्ताके नामके उल्लेखसे शून्य हैं और कई प्रतियोंमें सोमतिलकका कर्ता रूपसे उल्लेख भी मिलता है। अतएव यही वृत्ति मणिभद्रकृत न होकर सोमतिलक सूरिकृत है और उसी नामके साथ मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर, उभोईसे वि. सं. २००६ (ई. १९४९ ) में प्रकाशित भी है । अन्तमें प्रशस्ति भी मुद्रित है।
१. एशियाटिक सोसायटी, १९०५, सम्पादक, Luigi Suali; जैनात्मानन्दसभा, भावनगर, विम ___ सं. १९७४, सं. श्री दानविजयजी ।
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