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प्रस्तावना
२५
प्रस्तुत संस्करणमें भी परिशिष्टरूपसे वह लघुवृत्ति मुद्रित की गयी है। वहाँ भी चौखम्बा संस्करणका अनुसरण करके मणिभद्रकृत उसे पं. महेन्द्रकुमारजीने माना है। किन्तु उसमें संशोधन कर उसे सोमतिलक सूरिकृत समझना आवश्यक है।
प्रशस्तिसे मालूम होता है कि विद्यातिलक मुनिने अपनी स्मृतिके लिए यह विवृति बनायी है। इन्हीं विद्यातिलकका दूसरा नाम सोमतिलकसूरि था; यह भी प्रशस्तिके अन्तिम वाक्यसे पता लगता है। यह भी प्रशस्तिसे प्रतीत होता है कि आदित्यवर्धनपुरमें उन्होंने इसकी रचना वि. सं. १३९२ (ई. १३३५) में की है। अतएव यह कृति गुणरत्नसे प्राचीन है। सोमतिलकसूरिका जन्म वि. १३५५, दीक्षा वि. १३६९, आचार्यपद वि. १३७३ और मृत्यु वि. १४२४ में है ।- गुर्वावली २७३, २९१ ।।
(२) वाचक उदयसागरकृत अवचूरि-ला. द. विद्यामन्दिरके नगरसेठके भण्डारगत नं. ८६९ की दो पत्रकी पंचपाठी प्रतिमें बीचमें मूल लिख कर चारों ओर यह अवचूरि लिखी गयी है-अन्तमें लिखा ह
"इति षड्दर्शनसमुच्चयस्य ससूत्रावरिः वा. उदयसागरेण स्वपठनार्थमलेखि महानादरेण"। यह जैसा नामसे सूचित है अतिसंक्षिप्त टिप्पणरूप है।
प्रतिकी प्राचीनता देखते हुए यह उदयसागर अंचलगच्छके उत्तराध्ययनसूत्रकी दीपिकाके रचयिता उदयसागर हों यह सम्भवित है।
इसमें मंगलके बिना ही सीधा टिप्पण शुरू किया गया है ।
(३) ब्रह्मशान्तिदासकृत अवचूर्णि-ला. द. विद्यामन्दिरगत श्री देवसूरिसंग्रहको नं. ९३२४ की हस्तप्रतिमें यह अवचूणि लिखी गयी है । प्रतिलिपि सं. १९६० में की गयी है। आठ पत्र हैं। प्रारम्भमें मंगल है
___ "श्रीमद्वीरजिनं नत्वा हरिभद्र गुरुं तथा । किंचिदर्थाप्यते युक्त्या षड्दर्शनसमुच्चयः ॥" यह कृति वही हो सकती है जिसका निर्देश जैनग्रन्थावलीमें पत्र ६ वाली कोडायभण्डारगत अवचूरि रूपसे किया गया है।-जैनग्रन्थावली पृ. ७९।।
इसकी दूसरी प्रति उसी संग्रहमें नं. ९२१३ पंचपाठी सं. १८८५ में लिखो गयी है। चार पत्र है और प्रतिलिपि सूर्यपुर में की गयी है। इसीकी एक अन्य प्रतिलिपि श्री पुण्यविजयजीके संग्रहगत है। नं. २८८ है। उसके अन्त में “ब्रह्मशांतिदासाख्येन" ऐसा उल्लेख है। केवल ब्रह्म नामका या 'शान्तिदास'का देसाईकृत जैन. सा. सं. इ. में उल्लेख मिलता है किन्तु 'ब्रह्मशान्तिदास'का उल्लेख मिलता नहीं। जिनरत्नकोषमें भी इस नामके कर्ताके षड्दर्शनका विवरण उपलब्ध है ऐसा निर्देश है। ये कभी सं. १८८५ के पहले हुए होंगे।
(४) वृद्धिविजयकृत विवरण-ला. द. विद्यामन्दिरके पू. मुनि श्री पुण्यविजयजीके संग्रहगत नं. ७५८२ को यह प्रति है। इसके चार पत्र हैं। सं. १७२० में लाभविजयके शिष्य वृद्धिविजयने यह विवरण लिखा है।
१. सोमतिलकसूरिके परिचयके लिए देखें गुर्वावली २७२-२९३ । जनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, प. ४३२ । सोमसौभाग्य, ३.५२-५४ । जैनपरम्परानो इतिहास, भा. ३, पृ. ४२६ । २. देसाई, जैनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ. ५१८ । अन्य उदयसागरके लिए देखें वही, पृ. ६०२, ६६६, ६७५, ६७९ ।
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