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२१२ षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ४७. ६९१प्रतिपादनपरत्वाद्वा पृथगुपादानस्यादुष्टता। यथा च संवरनिर्जरयोर्मोक्षहेतुता, आस्रवस्य 'बन्धनिबन्धनत्वं, पुण्यापुण्यद्विभेदबन्धस्य च संसारहेतुत्वं तथागमात् प्रतिपत्तव्यम् ।
९१. तत्र पुण्यं शुभाः कर्मपुद्गलाः ३। त एव त्वशुभाः पापम् ४ । आस्रवति कर्म यतः स आस्रवः कायवाङ्मनोव्यापारः, पुण्यापुण्यहेतुतयाँ चासौ द्विविधः ५। आस्रवनिरोधः संवरः गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षादीनां चास्रवप्रतिबन्धकारित्वात्, स च द्विविधः सर्वदेशभेदाद् ६।
९२. योगनिमित्तः सकषायस्यात्मनः कर्मवर्गणापुद्गलैः संश्लेशविशेषो बन्धः, स च सामान्येनेकविधोऽपि प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदेन चतुर्धा, पुनरेकैको ज्ञानावरणादिमूलप्रकृतिभेदादष्टधा, पुनरपि मत्यावरणादितदुत्तरप्रकृतिभेदादनेकविधः। अयं च कश्चित्तीर्थकरत्वादिफलनिर्वतकत्वात् प्रशस्तः, अपरश्च नारकादिफलनिर्वतकत्वावप्रशस्तः, प्रशस्ताप्रशस्तात्मपरि
समाधान यद्यपि ये सब जीव और अजीव दोमें ही अन्तर्भूत हैं, फिर भी लोगोंको पुण्यपाप आदिमें सन्देह रहता है, अतः उनके सन्देहको दूर करनेके लिए पुण्य और पापका स्पष्ट निर्देश कर दिया है। संसारके कारणोंका स्पष्ट कथन करनेके लिए आस्रव और बन्धका तथा मोक्ष और मोक्षके कारणोंका खुलासा करनेके निमित्त मोक्ष, संवर तथा निर्जराका स्ततन्त्र रूपसे कथन किया गया है । अतः विशेष प्रयोजनके कारण इनका पृथक्-पृथक् निरूपण करनेमें कोई दोष नहीं है। आगमोंमें जिस विस्तार तथा खूबीके साथ संवर और निर्जराको मोक्षका कारण कहा है, आस्रवको बन्धमें हेतु बताया है, पुण्य और पाप रूपसे बन्धके दो भेद बताये हैं तथा आस्रव और बन्ध दोनोंको ही संसारका मूल बताया है वह विस्तृत कथन आगमसे ही ममझ लेना चाहिए।
६९१. शुभ-अच्छा फल देनेवाले कर्मपुद्गल पुण्य हैं, तथा बुरा फल देनेवाले कर्मपुद्गल पापरूप होते हैं। मन वचन तथा कायके जिन व्यापारोंसे, इनकी जिन हरकतोंसे कर्म आते हैं उन्हें आस्रव कहते हैं । मन वचन कायके अच्छे व्यापार पुण्यपुद्गलकर्मोको लाते हैं अतः वे पुण्यास्रव कहे जाते हैं तथा मन वचन कायके जो दुष्ट व्यापार बुरे पाप कर्मोंको लाते हैं उन्हें पापास्रव कहते हैं। इस प्रकार आस्रव तत्त्वके दो भेद होते हैं। कर्मोंके आस्रवको रोकना संवर कहलाता है। गुप्ति-मन वचन और कायकी क्रियाओंको रोकना, समिति-सावधानी पूर्वक देखभाल कर चलना खाना बोलना रखना उठाना तथा मलमूत्रका उत्सगं करना, धर्म-क्षमा आदि, अनुप्रेक्षासंसारकी अनित्यदशाका चिन्तवन करना आदिसे कर्मोंका आना बन्द हो जाता है अतः ये क्रियाएं भी संवर कही जाती हैं । संवर आंशिक भी होता है तथा सम्पूर्ण भी। सर्वसंवरमें कर्मों का आना बिलकुल रोक दिया जाता है तथा देशसंवरमें कुछ-कुछ कर्म रुकते हैं।
६९२. कषाययुक्त आत्मा अपनी मन वचन कायकी क्रियाओंसे जिन कर्मपुद्गलोंको खींचता है, उन कर्मपुद्गलोंसे आत्माके विशिष्ट संयोगको बन्ध कहते हैं। बन्धके चार भेद होते हैं-. प्रकृतिबन्ध-कर्मपुद्गलोंमें ज्ञानको रोकनेका या दर्शनको रोकने आदिका स्वभाव पड़ना। २. स्थितिबन्ध-कर्मो के आत्माके साथ बंधे रहनेके समयको मर्यादा। ३. अनुभागबन्ध-तीव्र मध्यम या मृदु फल देनेकी शक्ति पड़ना । ४. प्रदेशबन्ध-कर्मोका और आत्मप्रदेशोंका दूध और
१. बन्धननि-आ., क.। २. “कायवाङ्मनःकर्म योगः । स आस्रवः । शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ।" -त. सू. ६।।-३ । ३.-हेतुत्वाच्चासौ भ. २। ४. "आस्रवनिरोधः संवरः।"-त, सू. ९.१ । ५. “स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्रः।" -त. सू. ९।२। ६. “सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः।"-त. सू. दा२। ७. "प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्तद्विधयः।" -त. सू. बा३। ८. "आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनोयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः।"-त. सू. ८॥४। ९. -णामसमुद्भूत-म. ।
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